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Monday, 14 July 2014

मूक प्राणियों के प्रती संवेदना



मद्रास मे कांग्रेस का २६वा अधिवेशन चल रहा था. गांधीजी श्रीवास आयंगार के मकान मे ठहरे थे. वे उन दिनो किसी कारणवश राजनिती से अलग रह रहे थे.
एक दिन शाम के समय गांधीजी आगंतुको से बातचीत कर रहे थे. तभी श्री आयंगार एक मसौदा सामने लेकर आए , जिसमे हिंदू मुस्लीम समझौते की बात थी.
सारी बात सुनकर गांधीजी ने कहा, "भाई इसमे मुझे दिखाने जैसा क्या है? किसी भी शर्त पर हिंदू मुस्लीम समझौता हो सके मुझे मंजूर ही होगा ."
श्री आयंगार मसौदा लेकर आगे की प्रक्रिया पूर्ण करने चलें गये . गांधीजी शाम की प्रार्थना के बाद सो गये .
प्रातः उठते ही गांधीजी ने तात्काल महादेव देसाई और काका कालेलकर को तुरंत बुलाया और कहा, "कल शाम मुझसे बहोत बडी गलती हो गई . मैने मसौदे पर बिना विचार किए ही सहमती दे दी. उसमे मुस्लिमो को गोवध करने की आम इजाजत दी गई है. गोवध मुझसे भला कैसे बर्दाश्त होंगा? अतः उन लोगो को तुरंत जाकर कह आओ की यह प्रस्ताव मुझे मान्य नही. परिणाम चाहे जो हो पर मैं बेचारी गायो का जीवन संकट मे नही डाल सकता ."
वह प्रस्ताव तात्काल अस्वीकृत कर दिया गया.
सारांश
वस्तूतः मुक प्राणियों के प्रती संवेदना रख हम स्वयं को सच्चा मानव सिद्ध  करते है.



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शंका रहित विश्वास अंततः फलता है.



श्वेतमुनी भगवान शंकर के परम भक्त थे.
श्वेतमुनी एक दिन रुद्राध्याय का पाठ कर रहे थे. वो अचानक चौक गये  जब उनके सामने एक विक्राल व्यक्ती आकर खडे हो गया. उसका संपूर्ण शरीर काला था और उसने काले वस्त्र धारण किए हुए थे.
किंतु श्वेतमुनी अपनी भक्ती मे मग्न हो गये . शिवलींग की और  देखकर उन्होने 'ॐ नमः शिवाय ' का जाप आरंभ किया .
कुछ देर  बाद उस काले व्यक्ती ने अपना परीचय दिया , "मैं काल हुं . आपको लेने आया हुं . आपकी धरती पर रहने की अवधी समाप्त हो गयी है. अब आपको यमलोक चलना है."
श्वेतमुनी ने शिवलींग को अपने सीने से लगाया और कहा, "हे काल, आपने शिव भक्ती को चुनौती दि है. भगवान शंकर काल के भी काल महाकाल है. "
काल ने श्वेतमुनी को पाश मे बांधते हुए कहा, "शिवलींग निश्चेतन है. शक्तीशुन्य है. पाषाण मे सर्वेश्वर महादेव की कल्पना करना महान भुल है."
श्वेतमुनी बोले, "तुम्हे धिक्कार है जो कण कण मे व्याप्त भगवान उमापती की निंदा कर रहे हो."
मुनी की बात खत्म होते ही भगवान शंकर प्रकट हुए और  कहा, "ठहरो काल."
भगवान को देख काल और श्वेतमुनी नतमस्तक हुए . फिर श्वेतमुनी को आशिर्वाद देते हुए भगवान शंकर बोले, "भक्तराज श्वेतमुनी आपकी लिंगोपासना धन्य है. विश्वास की विजय होती है."
सारांश सभी प्रकारकी शंकाओं से रहीत विश्वास अंततः फलता ही है.

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Sunday, 13 July 2014

खरीखुरी आपुलकी उरली




रँडच्या वधानंतर सर्व अप्तेष्टांनी आणि मित्रमंडळींनी चाफेकर कुटुंबाकडे पाठ फिरविली. खुनाचा तपास पुण्याला चालू होता . त्या वेळी चाफेकरांना कोणीही भेटत नव्हतं . एके दिवशी दामोदरपंतांच्या आई लक्ष्मीबाई  आपल्या पतिराजांना म्हणाल्या , "आपण आता चिंचवडला जाऊ. इथे राहून काय करायचं आहे? चिंचवडला जाऊन मोरयाला साकडं घालायचं आहे मला!"
चिंचवडला गेल्यावर लक्ष्मीबाईंनी मोरयाला साकडं घातलं आणि अन्नपाणी वर्ज्य केलं .
अवतीभवतीचे लोक त्यांना भीतीनं भेटेनासे झाले . जवळचे लोक दूर गेले .
या गोष्टीला तिथल्या एका घराचा अपवाद होता . तो म्हणजे खोल्यांच्या घराचा! कृष्णाबाई खोले या त्यांच्या जिवाभावाच्या होत्या . लक्ष्मीबाईंनी अन्नपाणी वर्ज्य केलं आहे, हे कळाल्यावर कृष्णाबाई खोले यांनीही अन्नपाणी वर्ज्य केलं . तेव्हा लक्ष्मीबाई चाफेकर त्यांना म्हणाल्या , "मी एका घोरात पडले आहे म्हणून मी काही खातपीत नाही . पण तुम्ही कशासाठी देह झिजवता?"
यावर कृष्णाबाई खोले म्हणाल्या , "तुमच्या तिन्ही पोरांनी देशासाठी देहाचं दान केलं . त्या त्रिमूर्ती दत्तासाठी आम्ही काहीच नाही करायचं का? आता तुम्हीही अन्नपाणी वर्ज्य केलत. मग......"
ब-याच वेळानं लक्ष्मीबाईंनी अन्नाचा घास घ्यायचा मान्य केलं . पण सुखानं त्यांना तो घास घेता यायचा नाही . पोलिस यायचे आणि संशयाने अन्नधान्याचे आणि तिखटमिठाचे सारे डबे पालथे करून जायचे .
मग कृष्णाबाई खोले त्यांच्यासाठी रोज मागच्या दारानं कुणाच्या नकळत भाजीभाकरी नेऊन तुळशीवृंदावनाच्या कोनाड्यात ठेवायच्या आणि मगच स्वतः घास घ्यायच्या .
अशा संकट काळी आप्तेष्टांनी जिथे पाठ फिरविली तिथे शेजारी पाजारी सखे बनले . बेगडी आपुलकी सरली आणि खरीखुरी आपुलकी उरली.

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Saturday, 12 July 2014

योग्यता की परख



एक बार महान रूसी लेखक लियो टॉलस्टॉय को अपनी संस्था के लिए योग्य व्यक्तीयों  की तलाश थी.
अनेक लोग  टॉलस्टॉय के संस्था मे नौकरी करने हेतू अपने प्रमाणपत्र लेकर उपस्थित हुए . कई लोग टॉलस्टॉय के घनिष्ट मित्र की सिफारीश लेकर आए थे.
इन सब की भीड मे एक व्यक्ती ऐसा था जिसके पास कोई प्रमाणपत्र या सिफारीश पत्र नही था.  टॉलस्टॉय ने उसका चयन किया.
कुछ दिनो बाद, टॉलस्टॉय के एक करिबी मित्र ने पुछा , "मैने तुम्हारे पास एक व्यक्ती को नौकरी के लिए भेजा था. उस व्यक्ती के पास अपनी प्रतिभा सिद्ध करने के लिए अनेक प्रमाणपत्र थे.  किंतु तुमने उसका चयन नही किया. मैने सुना है की, अभी तुमने जिसे नौकरी पर रखा है उसके पास कोई प्रमाणपत्र नही है."
तब टॉलस्टॉय ने कहा , "मुझे मान्य है की उसके पास अपनी प्रतिभा सिद्ध करने के लिए कोई औपचारिक प्रमाणपत्र नही. किंतु उसने अपने विवेकपूर्ण और विनम्रतापुर्ण व्यवहार से अपनी योग्यता सिद्ध कर दी."
फिर टॉलस्टॉय के मित्र ने पुछा , "अच्छा , ऐसा उसने क्या किया ?"
टॉलस्टॉय ने जवाब दिया , "जिसे मैने चुना , उसने कमरे मे आने के पहले अनुमती मांगी . अंदर आते वक्त और बाहर जाते वक्त दरवाजे की आवाज ना हो इस बात का उसने ध्यान रखा . मेरी अनुमती मिलने के बाद ही वह कुर्सी पर बैठा. मेरे हर प्रश्न का आत्मविश्वास से संतुलित जवाब दिया . प्रश्न समाप्त होने पर इजाजत लेकर उठा और चुपचाप चला गया. किसी तरह की सिफारीश की कोशिश नही की. ऐसे गुणसंपन्न व्यक्ती के पास लिखित प्रमाणपत्र न भी हो तो क्या फर्क पडता है. "
दरअसल योग्यता की परख व्यावहारिक ज्ञान व संस्कारित आचरण को देखकर करनी चाहिए न कि औपचारिक प्रमाणपत्र से.

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Thursday, 10 July 2014

अहंकार को विनम्रता मे विलीन करे.



संत राबिया का जीवन त्याग और वैराग्य का सर्वोत्तम उदाहरण है.
राबिया निरंतर खुदा का स्मरण करती और संतो के साथ आध्यात्मिक चर्चा मे लीन रहती. लोग उन्हें श्रद्धा की दृष्टी से देखते थे. उनका आशिर्वाद लेने दूर दूर से श्रद्धालु आते थे. किंतु राबिया इस लोकप्रियता के अहंकार से कोसो दूर थी.
एक बार वे संतो के साथ आध्यात्मिक चर्चा कर रही थी. कुछ ही देर मे वहा संत हसन बसरी  आए . और कहा , "बहन राबिया , क्युँ न हम झील के पानी पर बैठकर खुदा की बात करे . "
ऐसा कहा जाता था की हसन बसरी पानी पर चल सकते थे.
राबिया उनके संकेत को समझकर बोली, "हसन भैया , हम खुदा का जिक्र आसमान मे उडते हुए करे तो कैसा रहेंगा?"
दरअसल राबिया को आसमान मे उडने का हुनर हासील था.
हसन को निरुत्तर देख राबिया ने कहा , "भैया, जो काम आप कर सकते हो वो तो एक छोटीसी मछली भी कर सकती है और जो मै कर सकती हूं उसे एक मामुली मक्खी भी कर लेती है. लेकीन सत्य इस करिश्मेबाजी से कोसो दूर है. उसे तो विनम्र होकर ही खोजना पडता है. जो विनम्र है वो ही सत्य का सच्चा अन्वेषी है."
हसन राबिया की महानता से अभिभूत हुए .
सारांश : अहंकार को विनम्रता मे विलीन करके ही परमात्मा पाया जा सकता है.



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ताठ मानेने आणि स्वाभिमानाने जगा



त्यावेळी भारतावर इंग्रजांचे राज्य होते . स्वातंत्र्याच्या जागृतीसाठी विवेकानंद आपल्या काही शिष्यांसह भारत भ्रमण करत होते . त्याकाळात अबू रोड रेल्वे स्टेशन येथे घडलेला एक प्रसंग .
स्वामी विवेकानंद आणि खेतडी संस्थानचे दिवाण जगमोहनलाल हे रेल्वेने मुंबईला निघाले होते .
त्यांना निरोप देण्यासाठी स्वामींचे एक बंगाली मित्र तेथे आले होते . तेवढयात एक इंग्रज तिकीट तपासणीस डब्यात आला. बंगाली मित्राकडे तिकीट नव्हते म्हणून तपासणीस त्याला गाडीतून उतर म्हणाला .
तो बंगाली मित्र रेल्वे कर्मचारी होता म्हणून त्याला तिकीट न काढता ही गाडीच्या डब्यापर्यंत येण्याची परवानगी होती . तो हे सर्व समजावून सांगू लागला तरीसुद्धा  इंग्रज तपासणीस ऐकून घेत नव्हता .
हा सगळा प्रकार बघून स्वामींजी मधे पडले . तेव्हा तो इंग्रज उद्धटपणे बोलला , "तुम क्युँ  बिच मे बात कर रहे हो?"
हे ऐकून स्वामींजी म्हणाले , "हिंदी भाषेत 'तुम' हे संबोधन तुच्छतेने वापरले जाते . तेव्हा 'आप' म्हणण्याचे साधे शिष्टाचार पाळावे."
त्यानंतर तो इंग्रज थोडा नरमला. आणि म्हणाला , "मला फारसे हिंदी येत नाही . मी तर केवळ ह्या माणसाला ....."
स्वामींजींनी त्याचे वाक्य पुर्ण होऊ दिले नाही आणि म्हणाले , "आपण स्वतः इंग्रज आहात . इंग्रजी भाषेत कोणालाही gentleman म्हणून संबोधन देतात हे आपणास माहित असणारच . तेव्हा आपले नाव आणि क्रमांक सांगा . प्रवासी आणि रेल्वे कर्मचारी यांना अनादराची वागणूक दिल्याबद्दल मला तक्रार करायची आहे."
हे ऐकल्यावर तिकीट तपासणीस घाबरला आणि क्षमा मागून तिथून निघून गेला .
इंग्रजांपेक्षा आपण कुठल्याही बाबतीत कमी नाहीत . तेव्हा आपण ताठ मानेने आणि स्वाभिमानाने वागायला हवे. हा संदेश स्वामींजी सर्व भारतीयांना देत असत.



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भलाई के उद्देश से बोला गया असत्य



रूसो फ्रान्स के महान विद्वान थे. यह कथा उनके बाल्यकाल की है.
रविवार को छुट्टी के दिन बालक रूसो अपने चाचा के यहा जाया करते थे. चाचा का लडका फेंजी रूसो का हमउम्र था. और दोनो मे गहरी मित्रता थी.
रूसो के चाचा का एक कारखाना था. फेंजी ने एक रविवार कारखाने मे जाकर मशिने देखने का प्रस्ताव रखा. रूसो मान गये .
दोनो बच्चे कारखाने पहुच कर मशिने देखने लगे . रूसो का हाथ एक मशीन के पहिए पर था. उस समय फेंजी ने उसी मशीन का पहिया घुमा दिया . इससे रूसो की ऊँगलियाँ पीस गई . खुन का फव्वारा छूट गया . वह दर्द के मारे चिख उठा. यह देख फेंजी ने तात्काल पहिया उल्टा घुमाया. जिससे रूसो की ऊँगलियाँ मशीन से निकली .
फेंजी दौडकर रूसो के पास आया और कातर शब्दों मे उसने कहा , "भैया, चिल्लाओ मत. मेरे पिताजी सुन लेंगे तो मुझे बहुत पिटेंगे."
रूसो ने भी अपना मुंह बलपुर्वक बंद रखा . बहुत देर तक धोने पर रूसो की ऊँगलियों से खुन बहना बंद हुआ . फेंजी ने एक कपडा फाडकर ऊँगलियों पर पट्टी बांध दी.
फेंजी ने चिंता प्रकट की, "भैया , आपके घर के लोग क्या कहेंगे?"
रूसो ने उसे चिंता करने से मना कर दिया.
जब रूसो घर पहुचे तो उनके घरवालो ने पुछा , "बेटा यह चोट कैसे लगी?"
रूसो ने गोलमोल उत्तर दिया , "खेलते वक्त लग गई ."
पुरे चालीस वर्ष तक किसी को इस घटना का पता नही था.
सारांश : किसी की भलाई के उद्देश से बोला गया असत्य न केवल क्षम्य होता है बल्की आदरणीय व प्रशंसनीय होता है.



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Tuesday, 8 July 2014

साम, दाम, दंड और भेद की निती

यह क्रांतिकारी देशभक्त चंद्रशेखर आझाद के बाल्यकाल का है. यह प्रसंग उनमे मौजूद देशभक्ती की भावना को दर्शाता है.
आझाद उन दिनो एक विद्यालय मे पढते थे. एक दिन उनकी कक्षा मे आध्यापक नही आए थे. इसलिए समुचा कमरा बच्चो के शोरगुल से गुंज रहा था. बातो बातो मे एक भारतीय छात्र का हाथ पास की कुर्सी पर बैठे एक अंगरेज छात्र को छू गया. गोरे छात्र ने नाराजी दिखाई और उस  भारतीय छात्र को कहा , "ब्लैक हिंदूस्थानी, तुम डंकी हो." यह सुनते ही भारतीय छात्र ने भयभीत होकर उससे क्षमा मांगी.
वही पास मे आझाद बैठे थे. उन्हें गोरे छात्र के मुंह से निकली गाली चुभ गई और उसका मुंह तोड देने की इच्छा हुई . किंतु तभी अध्यापक आ गये और सभी छात्र शांत होकर पढने लगे .
आझाद छुट्टी होने तक अपना क्रोध दबाए बैठे रहे .
जैसे ही छुट्टी हुई सभी छात्र बाहर निकलने लगे , आझाद ने उस गोरे छात्र को धक्का देकर निचे गिराया. फिर उससे कहा , "हमारे देश मे रहते हो और हमे ही गाली देते हो. जब हम बडे होंगे तो तुम सब गोरों को अपने देश से बाहर खदेड देंगे. फिर आझाद ने उसके मुंह पर ऐसे घुसे मारे की खुन निकलने लगा . आखिर मे उस गोरे छात्र ने अपने व्यवहार के लिए क्षमा मांगी.
दरअसल अपने अधिकारों की रक्षा के लिए साम , दाम, दंड ,भेद की चाणक्य निती अपनाना भारतीय परंपरा मे है. अतः अवसर आने पर इनका विवेकपूर्ण उपयोग सर्वथा उचित है.


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देवी ने माना सुकरात को सबसे बुद्धिमान व ज्ञानी पुरुष

यूनान के देल्फी मंदिर मे वर्ष मे एक बार भारी भीड जमा होती थी. क्युँ की ऐसी मान्यता थी की उस दिन देल्फी देवी जागृत होती है और भक्तो के सवाल के संतुष्टी प्रदायक उत्तर देती है.
एक बार इसी अवसर पर मंदिर के सभागृह मे काफी लोग एकत्रित हुए . पुजारी ने विधी विधान से पुजा की और फिर देवी जागृत होने का उद्घोष किया .
कोई अपने भविष्य को लेकर प्रश्न कर रहा था. कोई परिवार के विषय मे पुछ रहा था. किसी ने देश और समाज के प्रती सवाल पुछे.
इसी क्रम मे किसी ने पुछा , "हे देल्फी देवी, मै युनान के सबसे ज्ञानी और बुद्धिमान व्यक्ती के बारे मे जानना चाहता हुं ."
देवी ने कहा , "सुकरात ."
यह सुनकर कुछ लोग सुकरात के पास गये और पुछा , "क्या आप युनान के सबसे ज्ञानी और बुद्धिमान व्यक्ती है?"
तब सुकरात ने जवाब दिया , "मै तो अज्ञानी हूं . वैसे ज्ञान प्राप्त करने की मेरी जिज्ञासा अवश्य है."
यह सुनकर लोग पुनः देवी के पास गये और बोले, "हे देवी सुकरात तो ज्ञानी होने से इन्कार कर रहे है. फिर हम किसे युनान का सबसे बडा ज्ञानी माने?"
देवी ने कहा , "यही तो सबसे बडे ज्ञानी होने की पहचान है कि उसे अपने ज्ञान का अहंकार नही होता . वह स्वयं को अज्ञानी मानता रहता है." और फिर देवी शांत हो गई .
ज्ञानी बनने की इच्छा रखने वालों को अज्ञान के प्रती जिज्ञासु और ज्ञान के प्रती अभिमान से रहित होना चाहिए. तभी वह अपने ज्ञान का उपयोग स्वयं और समाज के हित मे कर पाएगा.

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Monday, 7 July 2014

आत्म संयम का मार्ग

संत इब्राहीम खवास के किसी पर्वत पर जा रहे थे. पर्वत पर अनार फलो से लदे वृक्ष थे. रसीले अनार मन मोह रहे थे. इब्राहीम की उन्हें देखकर खाने की इच्छा हुई . उन्होने एक अनार तोडा और खाने लगे किंतु वह अनार खट्टा निकला. अतः इब्राहीम ने उसे फेक दिया और आगे बढ गये .
कुछ दूर जाने पर उन्हें मार्ग मे एक व्यक्ती लेटा हुआ मिला . उसे बहुत मक्खियां काट रही थी. किंतु वो उन्हें भगाता नही था.
इब्राहीम ने उसे नमस्कार किया तो वह बोला , " इब्राहीम तुम अच्छे आए ."
एक अपरिचित को अपना नाम लेते देख इब्राहीम को आश्चर्य हुआ . फिर इब्राहीम ने पुछा, "आप मुझे कैसे जानते है?"
वह  व्यक्ती बोला, "एक ईश्वर भक्त से कुछ छिपा नही रहता."
इब्राहीम ने कहा , "आपको भगवद् प्राप्ती हुई है तो भगवान से प्रार्थना क्युँ नही करते की इन मक्खियों को आपसे दूर कर दे?"
तब वह मनुष्य बोला , "इब्राहीम , तुम्हे भी ईश्वर की प्राप्ती हुई है. तुम क्युँ नही प्रार्थना करते की तुम्हारे मन मे अनार खाने की भावना न हो. मक्खियां तो शरीर को कष्ट देती है, किंतु कामनाए तो हृदय को पिडीत करती है."
यह सुनकर इब्राहीम की आँखे खुल गई .
वस्तूतः कामनाओ का कोई अंत नही होता और वे सदा व्यक्ती को असंतुष्ट बनाए रखती है, जिससे उसे मानसिक शांती नही मिलती. अतः आत्म संयम का मार्ग अपना कर उपलब्ध वस्तूओ मे ही संतुष्ट रहना चाहिए.




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त्याग में ही है दान की वास्तविक महत्ता

महाराज युधिष्टीर कौरवों को पराजित कर सम्राट हुए/ तब उन्होने लगातार तीन अश्वमेध यज्ञ किए और इतना दान किया की उनकी दानशिलता की ख्याती देश देशांतर में फैल गई/
जब तिसरा यज्ञ पुरा हुआ तभी एक नेवला यज्ञभुमी में आकर लोट लगाने लगा / सभी लोग उसे देखकर आश्चर्य कर रहे थे/ उस नेवलें का आधा शरीर सोने का था/ तभी वह नेवला मनुष्य वाणी में बोल पडा, "पांडवो, तुम्हारा यज्ञ विधीपुर्वक हुआ, परंतु इसका पुण्य  कुरूक्षेत्र के एक  गरीब ब्राह्मण के एक  सेर सत्तु दान के बराबर भी नही/"
पांडवो ने पुछा, "ऐसा क्युँ?"
नेवलें ने जवाब दिया, "कुछ वर्ष पुर्व कुरूक्षेत्र में एक धर्मात्मा ब्राम्हण रहते थे/ वे खेतों में गिरे अन्न के दाने चुनकर परिवार का पालन पोषण करते थे/ एक बार घोर अकाल पडा/ उन्हें परिवार सहित कई दिन भुखा रहना पडा/ एक दिन वे कही से जौ के दाने बडी मेहनत से चुनकर लाए और उनका सत्तु बनाया /
भोजन करने बैठे ही थे की उनके घर एक भुखे ब्राम्हण का आना हुआ / ब्राम्हण ने अपना सत्तु उन्हें दे दिया/ किंतु अतिथी की भुख शांत नही हुई/ तब ब्राम्हण की पत्नी ने अपना भाग दे दिया/
तब अतिथी ने कहा, "मै धर्म हुं/ आप की परिक्षा लेने आया था/ अब आप स्वर्ग चलिए /"
उनके स्वर्ग जाने के पश्चात मै बिल से निकलकर जहा ब्राम्हण ने सत्तु खाकर हाथ धोए थे उसमे लोटने लगा / उससे मेरा आधा शरीर सोने का हो गया/ शेष आधा  शरीर भी सोने का करने के लिए मै यज्ञस्थलों पर घुमता हुं/ आपके यहा भी आया, किंतु कुछ न हुआ /
ब्राम्हण के दान में त्याग था और  दान कि महत्ता त्याग में ही है/

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बुजूर्ग के अनुभव से सेठपुत्रोंको संकट में मिला धन

रामजी सेठ के पास अपार संपत्ती थी/ एक दिन उनके मन में विचार आया कि एक भव्य शिवमंदिर का निर्माण करवाएं/ छह माह में मंदिर बनकर तैय्यार हो गया/ मंदिर  निर्माण के बाद जो धन  बचा था रामजी  सेठ ने उसे मंदिर के गुंबद में गुप्त रूपसे भरवा दिया और वो तिर्थयात्रा पर चलें गये/ तिर्थयात्रा के मध्य में ही उनकी मृत्यु हो गयी/
रामजी  सेठ के चार लडके थे रमेश, सुरेश, महेश, उमेश/ पिता की मृत्यू के बाद चारो मिलकर कामकाज संभाल रहे थे/
परंतु कुछ दिनोबाद व्यापार में घाटा होने लगा तो उन्होने रामजी  सेठ  के बहीखाते देखना शुरू किया/ एक बही में  गुंबद में धन वाली बात का उल्लेख था वह ईस प्रकार था,"धन चैत्र शुक्ल नवमी के दिन दोपहर बारह बजे गुंबद  में  भरवाया/"
चारो ने गुंबद तुडवाया परंतु धन कही नहीं मिला/
रामजी सेठ के परम मित्र थे सुबाली/ सुबाली काफी बुजूर्ग एवम् अनुभवी थे/ चारो  भाई  उनके  पास गये और उन्होने अपने पिता के हाथ की लिखी बात उनको बताई/ सारा  मामला  समझने के बाद सुबाली ने उनको मंदिर का गुंबद पुर्ववत करने को कहा/
फिर चैत्र शुक्ल नवमी के दिन दोपहर बारह बजे जहा गुंबद की छाँव पडी उसी जगह पर खुदाई कराना शुरू किया और रामजी सेठ का धन उनके पुत्रों को मिल गया/
चारो ने बुजूर्ग सुबाली का आभार माना और अपना व्यापार पुनः खडा किया /
सारांश-
बुजूर्ग व्यक्ती अनुभव संपन्न होते है, जो युवा पिढी के लिए सदैव मार्गदर्शन दे सकती है/
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