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Monday, 31 May 2021

कृष्णदास ने भिखारी को काम दे दिया

जय श्री राम सखियों और सखाओं। आपके लिए एक संत की कहानी लेकर आयी हु। ध्यान से पढ़िए। 

Image: Drik Panchang 

बहुत साल पहले कोण्डाणुळु नगर में कृष्णदास नामक एक व्यक्ति थे। यह उनके जीवन की घटना है। कृष्णदास नगर केप्रसिद्ध व्यापारी के पुत्र थे परन्तु बालपन से ही उनके मनमे सन्यास की चाह थी। यह बात उनके पिताजी को पता था इसीलिए उन्होंने अपने कई व्यापारिक सस्थानो में से एक दूकान कृष्णदास को संभालने दे दी थी। 

सन्यासी वृत्ति के कारण कृष्णदास दान देने में तो सबसे आगे रहते थे। वह तो कोशिश ही करते रहते थे की किसी तरह पिताजी ने दिया हुआ सब दान कर सन्यास लेने के लिए चला जाउ। 

एक दिन कृष्णदास अपनी दुकान पर एक ग्राहक को कुछ सामान दे रहे थे तभी उन्होंने देखा की उस गली में एक भिखारी आया है। उन्होंने जल्दी जल्दी उस ग्राहक को सामान देकर विदा किया और उस भिखारी के निकट आने की राह देख रहे थे। 

जैसे ही वह भिखारी नजदीक आया कृष्णदास ने उसे पूछा, "हे अतिथि आप शरीर से स्वस्थ है तो भी भीख क्यों मांग रहे हो?"

उस भिखारी ने कहा की उसे कोई काम नहीं देता इसीलिए वह भीख मांग रहा है। 

तभी कृष्णदास के पिताजी भी वहा आगये। कृष्णदास ने उस भिखारी से पूछा, "अगर मै तुम्हें कोई काम दू तो पूरी श्रद्धा से करोगे क्या ?"

भिखारी ने कहा, "यजमान भीख मांगना किसी भी व्यक्ति को अच्छा नहीं लगता आप अगर मुझे काम देंगे तो मेरे लिए बहुत अच्छा रहेगा इससे मेरे परिवार का भरण पोषण होगा। "

फिर कृष्णदास ने अपने पिताजी से कहा, "पिताजी इस दूकान को संभालने के लिए मैंने आपको योग्य व्यक्ति ढूंढ दिया है। मुझे आशीर्वाद दे और मैं अपनी पूरी जमा पूंजी इस भिखारी को दान देता हु। मैं सन्यास लेने अपने गुरुजी की शरण जाना चाहता हु।"

कृष्णदास के पिताजी कुछ बोल न सके और कृष्णदास ने सारी जमा पूंजी उस भिखारी को दान दे दी और वह चल पड़े। 

उस भिखारी ने कृष्णदास के पिताजी के चरणों में गिरकर धन्यवाद किया और वचन दिया की वह पूरी निष्ठा से उस दुकान को संभालेगा। 

इस तरह सन्यास की दीक्षा लेने के पहले कृष्णदास ने अपने पिताजी और उस भिखारी की समस्याओं का समाधान किया और वे संत बन गए। 

कहानी यहाँ तक पढ़ने के लिए धन्यवाद। इस कहानी को ज्यादा से ज्यादा शेयर करे और एकबार अपने अपने सद्गुरु का जयकारा कमेंट कर दीजिये। 



Thursday, 27 May 2021

चमत्कार

जय श्री राम सखियों और सखाओ। आपके लिए ह्रदय को पिघलाने वाला प्रसंग लेकर आयी हु। कृपया पूरा पढ़ना और चिंतन जरूर करना। 

Image : Patrika 

गुंटूर शहर में मांडवी नामकी एक छोटी लड़की रहा करती थी अपने परिवार के साथ - जिसमे माता पिता और एक बड़ा भाई था। बड़े भाई का नाम पिनाकी था। 

एक दिन मांडवी ने गुल्लक तोड़ दिया और सब सिक्के निकाले और उनको बटोर कर जेब में रख लिया| सारे रुपये लेकर वो घर से पास की केमिस्ट की दुकान पर गयी और दुकानदार से बात करने के लिए आवाज लगा रही थी। पर वो बहोत छोटी थी तो उसे कोई देख नहीं पा रहा था। दुकानदार अपने दोस्त विरुपाक्ष से बात करने में व्यस्त था। विरुपाक्ष विदेश से आया हुआ था। 

कई बार आवाज लगाने के बावजूद भी कुछ नहीं हुआ तो मांडवी ने जेब से एक सिक्का निकाला और उसे काउंटर पर फेका। सिक्के की आवाज से दुकानदार का ध्यान उसकी और गया और फिर उसने पूछा, "बेटा आपको क्या चाहिए ?"

फिर मांडवी ने जेब से सब सिक्के निकाल कर अपनी छोटी सी हथेली पर रखे और बोली “अंकल मुझे चमत्कार चाहिए!

दुकानदार समझ नहीं पाया उसने फिर से पूछावो फिर से बोली मुझे चमत्कार चाहिए.

दुकानदार हैरान होकर बोला – “बेटा यहाँ चमत्कार नहीं मिलता!

वो फिर बोली अगर दवाई मिलती है तो चमत्कार भी आपके यहाँ ही मिलेगा|”

दुकानदार बोला – “बेटा आप से यह किसने कहा?”

फिर मांडवी ने विस्तार से कहना शुरू किया, "मेरा नाम मांडवी है। मेरे भैया है पिनाकी उनको ट्यूमर हो गया है। उनके इलाज में बहोत पैसे लग रहे है समय पर उनका ऑपरेशन होना जरुरी है तभी वो बच सकते है। पर जो खर्च ऑपरेशन का डॉक्टर बता रहे है उतने पैसे नहीं है मेरे पापा के पास इसीलिए वो मम्मी को बता रहे थे की कोई चमत्कार ही उसे बचा सकता है। मै उसी चमत्कार को खरीदना चाहती हु जो मेरे भी पिनाकी को बचा ले।"

उसकी ये सारी बाते विरुपाक्ष भी बड़े ध्यान से सुन रहा था। फिर विरुपाक्ष ने मांडवी से पूछा, "बेटा बताओ कितने रुपये है तुम्हारे पास ?"

मांडवी ने अपनी मुट्टी से सब रुपये उसके हाथो में रख दिए। वो कुछ ५३ रूपए थे। विरुपाक्ष ने सारे रुपये अपने पास रख लिए और कहा, "मांडवी बेटे आपने चमत्कार खरीद लिया है चलो अब मुझे तुम्हारे भाई पिनाकी के पास ले चलो। "

मांडवी विरुपाक्ष को अपने घर ले गयी और अपने मम्मी पापा को बताया, "ये अंकल चमत्कार से पिनाकी भैया को ठीक करेंगे।"

फिर विरुपाक्ष ने बताया की वो एक न्यूरो सर्जन है और विदेश में काम करता है। अभी भारत छुट्टिया मनाने आया है। उसने पिनाकी की मेडिकल फाइल देखी और उसके ट्यूमर का ऑपरेशन करने के हिसाब से बाकि डॉक्टर्स से बात कर के ऑपरेशन का दिन तय कर दिया। 

निहित दिन ऑपरेशन हुआ जो विरुपाक्ष ने केवल ५३ रुपये में किया। और पिनाकी की जान बच गयी। 

मांडवी सरल भाव से चमत्कार ढूंढने निकली थी जो उसे विरुपाक्ष के रूप में मिला। सरल  भावना आपको किसी न किसी रूप में ईश्वर का साक्षात्कार जरूर कराती है। जैसे विरुपाक्ष ने मांडवी की सहायता की वैसे ही आप भी किसी की न किसी की सहायता हमेशा करे। आपके अनुभव जरूर कमेंट करे। यहाँ तक पढ़ने के लिए धन्यवाद। 


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ठाकुरजी के नखरे

जय श्री कृष्ण सखियों और सखाओ। आज भक्तिरस से भरी एक घटना आपको बता रही हु। कृपया अंततक पढ़े और भक्तिरस का अनुभव ले। 

संत गोपालाचार्य चंचल शिखामणि कृष्ण को बाल-भाव से भजते थे। जब बाबा पाठ करते तो ये महाशय हारमोनियम उठाकर उसमे सा रे गा मा...... का राग छेड़ देते। जब भोग लगाते तो ये रसोई घर में जाकर खूब खटर पटर करते।  जब जब बाबा कोई भी काम करे ये पहले ही शुरू हो जाते। और बाबा को कहना पडता थोडा हल्ला कम करो 

जैसे कोई छोटा बच्चा होता है, पहले जब वह बोलना सिखता है तो हम उसे सीखते है लल्ला मईया बोल , बाबा बोल, और एक दिन जब वह बोलने लगता है तो हम कितना खुश होते है। और फिर इतना बोलता है कि उसी मईया को लाठी लेकर कहना पडता है घर में मेहमान है थोडी देर चुप रह। हम बच्चे से पूंछते है क्या खाओगे ? फिर हम कितने प्यार से एक एक कौर उसे खिलाते है। बस इसी तरह ठाकुरजी भी है, हम सामने रख तो देते है पर बच्चे की भांति नहीं खिलाते, वरना तो खाने में भी बड़े नखरे है इनके। 

सबका मतलब यह की गोपालाचार्य कृष्ण को अपने घर के बालक की तरह बतियाते थे, उन्हें भोजन करते थे और जो भी कार्य करते तब कृष्णजी को अपने साथ लेकर काम करते थे। और इसीलिए भगवान भी उनके साथ भगवान की तरह न रहते हुए उनके घर के बालक की तरह ही रहते थे - बाबा जो भी करे वे हर काम में हाथ बटाते थे। 

एक दिन गोपालाचार्य ने ठाकुरजी के लिए खीर बनायीं और प्रेम से उनको भोग लगाने लगे, अब ठाकुर जी ठहरे चंचल शिरोमणि, खाते ही बोल पड़े, "बाबा!  इस खीर में शक्कर कम है।" बाबा ने झट थोड़ी सी शक्कर डाल दी।  फिर ठाकुर जी ने खायी अब बोले, "बाबा! बहुत मीठी है।" बाबा ने फिर थोडा सा दूध डाल दिया। 

फिर ठाकुरजी ने खायी फिर बोले, "बाबा! अब फिर शक्कर कम है। " इस तरह जब दो तीन बार किया तो बाबा समझ गए, खीर तो ठीक बनी है ये ही नखरे दिखा रहे है, तुरंत शक्कर और दूध का डिब्बा उठाया, और ठाकुरजी के सामने रखकर बोले, "लाला! लेलो अब अगर मीठी लगे, तो स्वयं दूध डाल लेना और फीकी लगे तो शक्कर डाल लेना। "

कहने का अभिप्राय, हम उनसे बोलते नहीं इसलिए वे हमसे बोलते नहीं, यदि उनसे बात करना शुरू करेंगे तो आप स्वयं देखिये वे बोलने लग जायेगे। और एक दिन ऐसा आएगा कि संत की तरह हमें भी कहना पड़ेगा थोडा हल्ला कम करो। 

भक्ति तो समर्पण की पराकाष्टा है। और सेवा भक्ति का अन्य रूप है। पुरे समर्पित भाव से ठाकुरजी की सेवा आपको निश्चित ही आनंद देगी। 

अगर आपने भी कभी चितचोर ठाकुरजी के संग बाते की हो और आपको उनके होने का एहसास हुआ हो तो एक बार कमेंट में जयकारा लगा दीजिये और इस ब्लॉग को ज्यादा से ज्यादा शेयर करिये। 


गुरु महिमा

जय श्री राम सखियों और सखाओ। आज आपके लिए गुरु की महिमा का बखान करते कुछ वाक्य ऐसे ही ले आयी हु। अंततक जरूर पढ़ना। 

Image : piousmantra 

 

🔹गुरू एक तेज हे जिनके आते ही सारे सन्शय के अंधकार खतम हो  जाते हे।

🔹गुरू वो मृदंग हे जिसके बजते ही अनाहद नाद सुनने शुरू हो जाते हे। 

🔹गुरू वो ज्ञान हे जिसके मिलते ही पांचो शरीर एक हो जाते हे।

🔹गुरू वो दीक्षा हे जो सही मायने मे मिलती हे तो पार हो जाते हे।

🔹गुरू वो नदी हे जो निरंतर हमारे प्राण से बहती हे।

🔹गुरू वो सत चित आनंद हे जो हमे हमारी पहचान देता हे।

🔹गुरू वो बासुरी हे जिसके बजते ही अंग अंग थीरक ने लगता हे।

🔹गुरू वो अमृत हे जिसे पीके कोई कभी प्यासा नही।

🔹गुरू वो मृदन्ग हे जिसे बजाते ही सोहम नाद की झलक मिलती हे।

🔹गुरू वो कृपा हि हे जो सिर्फ कुछ सद शिष्यो को विशेष रूप मे मिलती हे और कुछ पाकर भी समझ नही पाते।

🔹गुरू वो खजाना हे जो अनमोल हे।

🔹गुरू वो समाधि हे जो चिरकाल तक रहती हे।

🔹गुरू वो प्रसाद हे जिसके भाग्य मे हो उसे कभी कुछ मांगने की ज़रूरत नही।

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गुरु महिमा को यहां तक पढ़ने के लिए धन्यवाद अगर आपको भी गुरु कृपा मिली हो तो कृपया एक बार कमेंट में गुरु के नाम का जयकारा अवश्य करें। आपका जयकारा मुझे प्रेरणा देगा और ऐसे ही सुविचार आपके लिए लाने का। 


Thursday, 20 May 2021

लड्डूगोपाल की लीला

जय श्री कृष्ण सखियों और सखाओ। एक भक्तिरस भरी कहानी आपके लिए फिरसे लेकर उपस्थित हु। कृपया मन में लड्डूगोपालजी का ध्यान करते हुए इसे पढ़िए। 

Image: Bhagavatam-katha


चित्तूर नामक नगर में राजीवलोचन नामका एक स्वर्णकार था। वह लड्डूगोपाल का भक्त था और उनकी कृपा से उसका व्यापार बहोत तरक्की कर गया था। सोने के किसी भी तरह के गहने हो उसकी दुकान पर बनकर मिल जाते थे। कई अन्य स्वर्ण कारीगरों को भी उसने रोजगार दे रखा था। दूर दूर से लोग उस चित्तूर नगर में केवल राजीवलोचन की दुकान से गहने लेने और बनवाने आते थे। इतना बड़ा कारोबार होने के बाद भी राजीवलोचन लड्डूगोपाल  की भक्ति और पूजा अर्चना से कभी चूका नहीं। 

राजीवलोचन एक रामभद्र नामक मित्र था जो एक दिन उसे मिलने उसकी दुकान पर आया था। रामभद्र सपरिवार  तीर्थयात्रा कर लौटा था। वह अपने साथ प्रसाद और लड्डूगोपाल की एक बड़ी मनमोहक मूर्ति लेकर आया था।  उस समय राजीवलोचन एक हिरे जड़ित सोने का हार अच्छेसे देख रहा था। रामभद्र के आते ही राजीवलोचन ने उसकी आओभगत की और उसका ध्यान रामभद्र के साथ आये लड्डूगोपाल पर गया। 

राजीवलोचन ने तुरंत अपने हाथ का हिरेजड़ा हार उन लड्डूगोपाल को पहना दिया और कहा, "देखो तो सही इस हार की शोभा लड्डू गोपाल के गले में पढ़ने से कितनी बढ़ गई है।" राजीवलोचन और रामभद्र बाते करने लगे और बातों बातों में हार समेत रामभद्र उन लड्डूगोपाल को लेकर चल दिया। वह टैक्सी करके अपने घर के लिए निकल गया था। और इधर राजीवलोचन अपने अन्य ग्राहकों को देखने में व्यस्त हो गया था। 

रामभद्र जिस टैक्सी से घर के लिए निकला था उसी टैक्सी में वह उन लड्डूगोपाल को भूल गया। वह टैक्सी ड्राइवर जिसका नाम जनार्दन था वह कोकानड़ा नगर में अपनी पत्नी वैदेही के साथ रहता था। रामभद्र को उसके घर छोड़ वह कोकानड़ा स्थित अपने घर की तरफ निकल पड़ा। 

जनार्दन जब अपने घर पोहोचा तब उसने देखा की टैक्सी की पिछली सीट पर लड्डूगोपालजी विराजमान है। वह थोड़ा हक्का बक्का रह गया और सोचने लगा की ये लड्डूगोपाल किसके है? उसने सारा सामान उतारकर घरमे रखा और पत्नी वैदेही को लड्डूगोपाल को लाने के लिए कहा। 

वैदेही घर के बाहर आयी और उसने टैक्सी खोलकर जब देखा तो निःसंतान वैदेही के मन से ममता का झरना फुट पड़ा और उसने उन लड्डूगोपाल को अपने ह्रदय से लगा लिया मानो वो उसका छोटा सा शिशु हो। और गोद में उठाकर वह अपने घर के अंदर ले गई। और जनार्दन से कहा, "आप नहीं जानते कि आज आपने मेरे लिए कितना अमूल्य रत्न लाया है।" और वह झठ से अंदर गयी और उन लड्डूगोपालजी संग बाते करने लगी। 

बाते करते करते वैदेही ने अपने छोटेसे  घर में लड्डूगोपालजी के लिए अच्छी जगह बनाकर उन्हें विराजमान कर दिया। और फिर उनसे कहा, "लाला मेरे घर इतनी दूर से आये हो तनिक विश्राम करो मैं आपके लिए घी का दूध ले आती हु। पीकर सो जाना। "

इधर चित्तूर नगर में हार और लड्डूगोपालजी गायब हो जाने से राजीवलोचन और रामभद्र दोनों परेशान हो गए थे। आखिर में राजीवलोचन ने मन ही मन कहा, "कोई बात नहीं। यह मेरी भक्ति की परीक्षा है। अगर मेरी श्रद्धा सच्ची है तो लड्डूगोपालजी के अंग लगा वह हार वे हमेशा पहने रखेंगे।"

उधर कोकानड़ा नगर में जनार्दन और वैदेही दिन-रात लड्डूगोपालजी की सेवा करने लगे जैसे मनो वो उनके ही पुत्र हो। लड्डूगोपालजी की कृपा हुई और उनके घर एक बहुत ही सुंदर बेटी ने जन्म लिया जिसका नाम उन्होंने ललिता रखा। ललिता के जन्म का सारा श्रेय वे लड्डूगोपालजी को ही देते रहे। 

एक दिन राजीवलोचन अपने व्यापार के सिलसिले में कोकानड़ा नगर आया। पर मौसम ख़राब होने की वजह से वह एक जगह रुक गया। काफी देर बाद जब थोड़ा मौसम ठीक हुआ तो उसने टैक्सी लेने की सोची। तभी जनार्दन उसके पास अपनी टैक्सी लेकर पहुचा। जैसे ही राजीवलोचन जनार्दन की टैक्सी में बैठा और दोनों कुछ दूर आगे गए फिरसे मौसम ख़राब हुआ और धुआँधार बारिश हो गयी। जनार्दन ने राजीवलोचन से पूछा, "साहब आगे सारे रास्ते बंद है। यहाँ से नजदीक मेरा घर है। आप चाहो तो कुछ देर मेरे घर रुक जाइये फिर मौसम साफ होने के बाद मै आपको आपकी मंजिल तक पहुंचा दूंगा।"

राजीवलोचन ने हां कहा और दोनों जनार्दन के घर गए क्यों की उसके पास कोई और चारा नहीं था। 

घर पर जनार्दन ने वैदेही को राजीवलोचन के लिए खाना बनाने के लिए कहा। जनार्दन के छोटे से घर में मन को प्रसन्न करने वाली इत्र की खुशबु आ रही थी। और वैदेही के हाथ का भोजन मानो अमृत से भरा हो। राजीवलोचन का ध्यान बार-बार उस दिशा की तरफ जा रहा था, जहां पर लड्डूगोपालजी विराजमान थे। वहां से उसको एक अजीब तरह का प्रकाश नजर आ रहा था। आखिर में जिज्ञासावश राजीवलोचन ने कहा, "जनार्दन तुम्हे ऐतराज न हो तो क्या मैं जान सकता हु उस दिशा में क्या है? मेरा ध्यान बार बार उधर जा रहा है। "

जनार्दन ने कहा, "अरे क्यों नहीं साहब। वह तो हमारे परिवार के सबसे महत्वपूर्ण सदस्य की जगह है। आइये मैं आपको उनसे मिलवाता हु। "

जनार्दन राजीवलोचन को लड्डूगोपालजी के पास ले गया। उनको देख राजीवलोचन की आखे खुली की खुली रह गयी। क्यों की अभीभी उनके गले में वो हार जैसा की वैसा था जो राजीवलोचन ने पहनाया था। जनार्दन और वैदेही ने सारी बात राजीवलोचन को बताई। 

राजीवलोचन ने पूछा, "क्या तुम जानते हो कि जो हार लड्डूगोपाल जी के गले में पड़ा है उसकी कीमत क्या है?"

वैदेही ने जवाब दिया, "जो चीज हमारे लड्डू गोपाल जी के अंग लग गई हम उसका मूल्य नहीं जानना चाहते और हमारे लाला के सामने किसी चीज किसी हार का कोई मोल नहीं है। "

यह सुन राजीवलोचन के मन में समाधान की भावना जाग उठी और उसने मन ही मन कहा, "अच्छा है मेरा हार लड्डूगोपाल जी ने अपने अंग लगाया हुआ है।"

मौसम काफी ख़राब होने की वजह से राजीवलोचन को पूरी रात जनार्दन के घर रुकना पड़ा। अगले दिन जनार्दन ने उसे उसकी मंजिल तक पहुंचा दिया। वह गाड़ी से उतारकर किराया देकर जा रहा था तभी जनार्दन ने आवाज लगाई, "साहब आपका सामान मेरी गाड़ी में रह गया है, तनिक रुकिए मैं ला देता हु। "

राजीवलोचन परेशान हो गया क्यों की उसने उसका बैग जिसमे उसके व्यापार से जुड़े कागजात थे  वह तो ले लिया था। फिर क्या रह गया था ? जनार्दन ने एक बैग लाकर दिया और कहा, "साहब ये बैग आपका ही है।"

राजीवलोचन ने बैग खोल कर देखा तो उसमे बहोत सरे पैसे थे। उसने गिने तो वह हक्का बक्का रह गया क्युकी वे उतने ही थे जितने उस हार की कीमत। वह रोने लगा तो जनार्दन ने पूछा, "साहब क्या हुआ?"

राजीवलोचन ने बताया कैसे वो हार लड्डुगोपलाजी के गले में आया और आखिर में कहा, "जब तक मैंने निश्छल भाव से ठाकुर जी को वह हार धारण करवाया हुआ था तब तक उन्होंने पहने रखा। मैंने उनको पैसों का सुनाया तो उन्होंने मेरा अभिमान तोड़ने के लिए पैसे मुझे दे दिए हैं।"

यह सुन जनार्दन भी आश्चर्यचकित हो गया। 

लड्डूगोपाल की लीला वो ही जाने, तीर्थयात्रा से किसके साथ आये, किसके हाथो सजे और किसके यहाँ विराजमान हुए ये सब उनकी लीला है। बस जबतक आपके भाव शुद्ध तबतक आपसे सेवा करवाते रहेंगे। अगर आपके मन में जरा भी भक्ति भाव जगा हो तो कृपया एकबार लड्डूगोपालजी का जयकारा कमेंट कर दीजिये और इस ब्लॉग को शेयर करिये। धन्यवाद। 

मूर्तिपूजा से जुडी भावना

जय श्री कृष्ण सखियों और सखाओ। आज मूर्तिपूजा से जुडी एक कहानी आपके लिए लायी हु। इसे अंततक पढ़ना जरूर। 

Image: aajtak 

अनंतपुर नामके नगर में एक कमलनाथ नाम का एक व्यक्ति रहता था। वह व्यापर और सामजिक दोनों ही क्षेत्रों में बड़ा निपुण था पर हमेशा परेशान रहता था। अपने मित्रो से अपनी परेशानी बतलाता था पर उसके परेशानी की वजह कुछ खास नहीं रहती थी। 

एक दिन ऐसे ही वह अपने मित्र के साथ परेशानी क्यों है इसकी चर्चा कर रहा था तो उसके मित्र ने उसे सलाह दी कि कृष्ण भगवान की पूजा शुरू कर दो। बस फिर क्या था वह अपने घर एक सुन्दर सी कृष्ण की मूर्ति ले आया। और नियम से हर रोज पूजा करने लगा। 

जैसे उसके परेशानी का कोई कारण नहीं था वैसे ही उसकी पूजा में भी कोई रस नहीं था। इस वजह से वह कभी अपनी अकारण परेशानी से मुक्त न हो पाया। 

फिर ऐसे ही किसी और दोस्त से चर्चा करता और समाधान ढूंढने की कोशिश करता। किसी ने कहा हनुमानजी की पूजा करो तो वह हनुमानजी की मूर्ति घर ले आया और कृष्ण जी की मूर्ति को थोड़ा बाजु में हटा कर हनुमानजी को रख दिया। ऐसे करते करते उसके पूजाघर में सभी देवी देवता आगये पर मन कि परेशानी उसकी जरा दूर नहीं हुई। आखिर में किसी के कहने पर वह माताजी की मूर्ति लेकर आया और उसे भी वही रख कर रोज पूजा करने लगा।

ऐसे करते करते कई दिन बित गए और एक दिन उसके मनमे ख़याल आया, 'अरे मैंने तो धुप बत्ती माताजी के लिए लगायी है। पूजाघरमे रखे बाकि देवता भी उसे सूंघ रहे होंगे। मैं एक काम करता हु सबके मुँह बांध देता हु ताकि सिर्फ माताजी को धूपबत्ती का सुगंध मिले। '

जैसे ही वह श्रीकृष्णजी का मुँह बाँधने लगा कृष्ण भगवान ने उसका हाथ पकड़ लिया। वो हैरान रह गया और भगवान से पूछा, "इतने वर्षों से पूजा कर रहा था तब नहीं आए? आज कैसे प्रकट हो गए ?" तभी सारे देवी देवता प्रकट हो गए। 

भगवान श्रीकृष्ण ने समझाते हुए कहा, "आज तक तू एक मूर्ति समझकर मेरी पूजा करता था। किन्तु आज तुम्हें एहसास हुआ कि "कृष्ण साँस ले रहा है! तो बस मैं आ गया।" बाकि देवी देवताओ ने भी कृष्ण जी से सहमति जताई। 

तब कमलनाथ को अपनी गलती का एहसास हुआ और उसने सभी देवी देवताओ से क्षमा मांगी और वचन दिया, "मूर्ति में आप विराजमान है इसी भावना से अब मैं पूजा करुँगा। " 

कमलनाथ की मूर्ति की और देखने कि भावना बदली तो उसकी अकारण परेशानी भी दूर होने लगी और उसे  मन की शांति मिली। इसीतरह जब हम श्रद्धापूर्ण भाव से कोईभी ईश्वर कार्य करते है तो उसके फल बदल जाते है। जो भी कर्म हम जीवन में करते है उनके पीछे का भाव सकरात्मक कर दीजिये और फिर देखिये की आपको कैसे उस कार्य में सफलता प्राप्त होती है। 


यह कहानी आपको पसंद आयी हो तो एक बार आपकी श्रद्धा जिनके भी चरणों में है उनके नाम का जयकारा कमेंट कर दीजिये जिससे मुझे आपके लिए ऐसीही और कहानिया लाने की प्रेरणा मिलती रहे। और इस ब्लॉग को ज्यादा से ज्यादा शेयर करिये। धन्यवाद। 


Saturday, 15 May 2021

ब्रम्हपुत्र के उद्गम की पौराणिक कहानी

Image: NativePlanet

जय श्री परशुराम सखियों और सखाओं! अक्षय तृतीया के अवसर पर परशुरामजी के बारेमे पढ़ रही थी तब मुझे ये कथा मिली जो अब आपके लिए ले आयी हु। 

यह कहानी अत्यंत रोचक है। कहा जाता है की युगो पूर्व जब भगवान विष्णु ने परशुराम अवतार लिया था तब उन्ही के हाथो ब्रम्हपुत्र का उद्भव हुआ था। 

बात उस समय की है जब परशुराम भगवान  पिता ऋषि जमदग्नि और माता रेणुका अपने आश्रम में रह रहे थे। पर एक दिन जमदग्नि ऋषि के मनमे अपनी पत्नी रेणुका के चरित्र के विषय में संशय उत्पन्न हुआ। यह बात ऋषि ने अपने परम पराक्रमी पुत्र परशुराम को बताई। पिता की आज्ञा से परशुरामने अपने परसे (कुल्हाड़ी जैसा शस्त्र) माता रेणुका का सर धड़ से अलग कर दिया। इस मातृहत्याके पाप के कारण परसा परशुरामजीके हाथ से चिपक गया। 

मातृहत्या के पाप का जो शाप भगवान परशुराम पर लगा था उसे कैसे दूर किया जाये इसका हल ढूढ़ते हुए परशुरामजी अनेक ऋषि मुनियोसे मिले। उनके निर्देशोंके हिसाब से परशुरामजी ने अपनी यात्रा उत्तर पूर्व दिशामे प्रारम्भ की। और वह एक स्थान पर पोहोंचे जिसे परशुराम कुंड से आज जाना जाता है। फिर उन्होंने अपने असीम बाहुबलसे पर्वत को तोड़ दिया जिससे पानी बहकर कुंड के रूप में स्थापित हो गया। कुंड मतलब छोटीसी झील जो पहाडियोसे घिरी हुई है। वहा परशुरामजी ने विधिवत प्रायश्चित स्नान किया और परसा उनके हाथ से अलग हो गया। और इस तरह वो अपने पाप से मुक्त हो गए। उसके बाद उन्होंने दक्षिण दिशा की पहाड़ियों को काट डाला ताकि कुंड का पवित्र जल जनसामान्य तक पहोच सके। 

परशुरामजी की वजह से ही आज ब्रह्मपुत्र नदी का पानी हम भारत के उत्तर पूर्व भाग को पवित्र करता हुआ बांग्लादेश जाता है और फिर बंगाल के सागर में विलीन होता है। 

अगर आपको यह कथा पढ़ कर परशुरामजी के प्रति कृतज्ञता का भाव उत्पन्न हुआ हो तो कृपया एकबार परशुरामजी का जयकारा कमेंट कर दीजिये और इस कथा को सबके साथ शेयर करियेगा। धन्यवाद!



कागज़ का टुकड़ा

जय श्री कृष्ण सखियों और सखाओं ! आज आपके लिए भगवान पर अटूट विश्वास की एक घटना लेकर आयी हु। कृपया इसे पूरा पढ़े। 

Image: Magicpin 

एक छोटे गांव में सरस्वती नाम की एक वृद्ध महिला रहती थी। गांव में सब उसे जानते थे कभी कोई नाश्ता दे जाता तो कभी कोई खाना दे जाता। वह राधे राधे जपते खा लेती और प्रभु का धन्यवाद देती। एक दिन उसके मन में तीर्थयात्रा की करने की आयी और वह गांव के लोगो से विदा लेकर चल पड़ी। 

एक दिन वह किसी शहर पोहोची। उसे भूख लगी थी तो उसने कुछ फल खाने के सोचे और वह एक फलों की दुकान पर जाती है। पर उसके पास फल खरीदने के पैसे नहीं होते है। बूढी  माई पूरी तीर्थयात्रा में खाना जहा भी मांग लेती थी मिल जाता था। पर यह शहर थोड़ा अजीब था वहा के लोग हर बात पर मोल भाव करते थे। 

बूढी माई को भूख लगी थी  इसीलिए वो दुकानदार से प्रार्थना करने लगी कि उसेकुछ फल उधार दे दे। पर दुकानदार  ठहरा मोल भाव  करने वाला उसने मना कर दिया

बूढी माई ने बार-बार आग्रह करने लगी तब उस दूकानदार ने खीज कर कहा, "तुम्हारे पास कुछ ऐसा है, जिसकी कोई कीमत हो, तो उसे इस तराजू पर रख दो मैं उसके वज़न के बराबर फल तुम्हे दे दूंगा।

बूढी माई के पास ऐसा कुछ  भी नहीं था तो बूढी माई ने कुछ सोचा और फिर एक फटे पुराने कागज के टुकड़े पर कुछ लिख कर तराजू पर रख दिया। 

दुकानदार ये देख कर हंसने लगता है। फिर भी वह थोड़े अंगूर उठाकर तराजू पर रखता है 

आश्चर्य! कागज़ वाला पलड़ा नीचे रहता है औरअंगूर वाला ऊपर उठ जाता है इस तरह वो औरफल रखता जाता है पर कागज़ वाला पलड़ा नीचे नहीं होता तंग आकर दुकानदार उस कागज़ को उठा कर पढता है और हैरान रह जाता है कागज़ पर लिखा था,"हे श्री राधे तुम सर्वज्ञ हो,अब सब कुछ तुम्हारे हाथ में है"

दुकानदार को अपनी आँखों पर यकीन नहीं हो रहा था। वो उतनी वृद्ध महिला को दे देता है जितने उसे चाहिए थे। 

इस घटना से आश्चर्य मत करना क्युकी राधेरानी जानती है प्रार्थना का क्या मोल होता है। 

वास्तव में प्रार्थना में बहुत शक्ति होती है।फिर चाहे वो एक घंटे की हो या एक मिनट की, यदि सच्चे मन से की जाये,तो ईश्वर अवश्य सहायता करते हैं।अक्सर लोगों के पास ये बहाना होता है,की हमारे पास वक्त नहीं।मगर सच तो ये है कि ईश्वर को याद करने का कोई समय नहीं होता प्रार्थना के द्वारा मन के विकार दूर होते हैं और एक सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है। जीवन की कठिनाइयों का सामना करने का बल मिलता है। ज़रूरी नहीं की कुछ मांगने के लिए ही प्रार्थना की जाये।जो आपके पास है उसका धन्यवाद भी करना चाहिए।इससे आपके अन्दर का अहम् नष्ट होगा और एक कहीं अधिक समर्थ व्यक्तित्व का निर्माण होगा।प्रार्थना करते समय मन को ईर्ष्याद्वेषक्रोध घृणा जैसे विकारों से मुक्त रखें।

अगर आप इस घटना के सार से सहमत है तो एकबार राधे रानी का जयकारा अवश्य कमेंट करे और इसे ज्यादा से ज्यादा शेयर करे।  धन्यवाद। 



यह काम परमात्मा का है, परमात्मा जाने

जय श्री कृष्ण मित्रो और सखियों ! आज आपके लिए भक्तिरस से भरी समर्पण से भरी एक कहानी लायी हु।  कहानी आपने भी कई बार पढ़ी होंगी पर अपने आराध्य पर अटूट विश्वास आपको सबकुछ देता है यह बताने वाली ये कहानी हमने बार बार पढ़नी चाहिए और सबको बतानी चाहिए। इसीलिए फिरसे एकबार शेयर कर रही हु। 

Image: DNA 

भारत के एक छोटे शहर में एक पुरानी सी इमारत में विष्णुदत्त नामके वैद्यजी का मकान और दवाखाना दोने थे।  वह अपनी पत्नी सौदामिनी और बेटी रिदिमा के साथ वहा  रहते थे। 
सौदामिनी हर दिन नित्य नियम से घर के पुरे काम करती थी और दवाख़ाना खोलने से पहले विष्णुदत्त को उस दिन के लिए आवश्यक सामान एक चिठ्ठी में लिख कर दे देती थी। विष्णुदत्त अपनी पूजा और नित्य साधना करके दवाखाना खोलते और फिर अपनी जगह पर बैठ कर परमात्मा का स्मरण कर वह चिठ्ठी खोलते। सौदामिनी ने जो सामान लिखा होता, उसका मोल भाव देखते और हिसाब करते थे। फिर परमात्मा से प्रार्थना करते, "हे भगवान ! मैं केवल तेरे ही आदेश के अनुसार तेरी भक्ति छोड़कर यहाँ दुनियादारी के चक्कर में आ बैठा हूँ।" यह उनका नित्य नियम था। 
विष्णुदत्त कभी अपने मुँह से किसी रोगी से फ़ीस नहीं माँगते थे। कोई देता थाकोई नहीं देता था। किन्तु एक बात निश्चित थी कि ज्यों ही उस दिन के आवश्यक सामान ख़रीदने योग्य पैसे पूरे हो जाते थेउसके बाद वह किसी से भी दवा के पैसे नहीं लेते थे चाहे रोगी कितना ही धनवान क्यों न हो।
ऐसे ही हर दिन की तरह विष्णुदत्त  ने अपना दवाख़ान दवाख़ाना खोला। अपनी जगह पर बैठ कर परमात्मा का स्मरण कर सामान की चिठ्ठी खोली। उनकी बेटी रिदिमा विवाह योग्य हो गई थी और कुछ दिनों में उसका विवाह होना निश्चित था तो सौदामिनी ने आज जो चिठ्ठी  उसे पढ़कर विष्णुदत्त एकटक देखते ही रह गए। क्युकी चिठ्ठी में रोज के सामान के साथ  सौदामिनी ने लिखा था, 'रिदिमा का विवाह अगले हफ्ते हैउसके दहेज का सामान।' यह पढ़ते ही मन भटकने लगा और आखों के सामने तारे चमकते हुए नज़र आए। पर विष्णुदत्त ने अपने आप को संभाला और फिर रोज के सामान का हिसाब किया और दहेज के सामने लिखा, 'यह काम परमात्मा का हैपरमात्मा जाने।' और हिसाब लगाकर परमात्मा से प्रार्थना की, "हे भगवान ! मैं केवल तेरे ही आदेश के अनुसार तेरी भक्ति छोड़कर यहाँ दुनियादारी के चक्कर में आ बैठा हूँ।"
एक-दो रोगी आए थे। उन्हें विष्णुदत्त ने दवा दी। इसी दौरान एक बड़ी सी कार उनके दवाखाने के सामने आकर रुकी और उसमे से पद्मनिधि नामक एक धनवान व्यक्ति उतर कर  दवाखाने में आ बैठा और अपनी बारी की  राह देखने लगा। पहले आये हुए रोगी चले गए और फिर विष्णुदत्त ने पद्मनिधि से कहा, "यहाँ मेरे समीप आइये मै आपकी नाड़ी देखता हु फिर आपको दवा दूंगा।"
पद्मनिधि ने कहा, "वैद्यजी! मैं कई साल बाद आपके दवाखाने पर आया हूँ इसीलिए आपने मुझे पहचाना नहीं। मै पद्मनिधि। मै आप को पिछली भेट के बारेमे बताता हु। १५- १६ साल पहले मै कार से अपने पैतृक घर जा रहा था। बिल्कुल आपके दवाखाने के सामने हमारी कार पंक्चर हो गई। ड्राईवर कार का पहिया उतार कर पंक्चर लगवाने चला गया। धुप बहोत थी तो आपने मुझे आपके दवाखाने में बैठने के के लिए कहा था और मै आकर बैठ गया। ड्राइवर ने कुछ ज्यादा ही देर लगा दी थी।"
विष्णुदत्त ने पूछा, "फिर क्या हुआ?"
पद्मनिधि ने आगे बताया, "आपकी बेटी आपको भोजन के लिए बुलाने आयी थी तो आपने उसे कहा की आप थोड़ी देर बाद आएंगे। मैं  इतनी देर से आप के पास बैठा था और मेरे ही कारण आप खाना खाने भी नहीं जा रहे थे। आपका दवाखाना देख मैंने सोचा की मैंने कोई दवाई लेनी चाहिए। फिर मैंने आपको यह बताया की विदेश में कारोबार है और विवाह को ७-८ साल बीतने के बाद भी बच्चे के सुख से वंचित हु। यहाँ भी इलाज कराया और वहाँ इंग्लैंड में भी लेकिन किस्मत ने निराशा के सिवा और कुछ नहीं दिया।"
विष्णुदत्त ने फिर पूछा, "आगे क्या हुआ ?"
पद्मनिधि ने बताया, "आपने कहा थामेरे भाई! भगवान से निराश न होओ। याद रखो कि उसके कोष में किसी चीज़ की कोई कमी नहीं है। आस-औलादधन-इज्जतसुख-दुःखजीवन-मृत्यु सब कुछ उसी के हाथ में है। यह किसी वैद्य या डॉक्टर के हाथ में नहीं होता और न ही किसी दवा में होता है। जो कुछ होना होता है वह सब भगवान के आदेश से होता है। औलाद देनी है तो उसी ने देनी है। मुझे याद है आप बातें करते जा रहे थे और साथ-साथ पुड़िया भी बनाते जा रहे थे। सभी दवा आपने दो भागों में विभाजित कर दो अलग-अलग लिफ़ाफ़ों में डाली थीं और फिर मुझसे पूछकर आप ने एक लिफ़ाफ़े पर मेरा और दूसरे पर मेरी पत्नी का नाम लिखकर दवा उपयोग करने का तरीका बताया था।"
पद्मनिधि ने आगे बताया, "मैंने तब बेदिली से वह दवाई ले ली थी क्योंकि मैं सिर्फ कुछ पैसे आप को देना चाहता था। लेकिन जब दवा लेने के बाद मैंने पैसे पूछे तो आपने कहा था, 'बस ठीक है।' मैंने जोर डालातो आपने कहा कि 'आज का खाता बंद हो गया है।' मैंने कहा 'मुझे आपकी बात समझ नहीं आई।' इसी दौरान वहां एक और आदमी आया हुआ था उसने हमारी चर्चा सुनकर मुझे बताया कि 'खाता बंद होने का मतलब यह है कि आज के घरेलू खर्च के लिए जितनी राशि वैद्यजी ने भगवान से माँगी थी वह ईश्वर ने उन्हें दे दी है। अधिक पैसे वे नहीं ले सकते।'"
पद्मनिधि ने आगे बताया, "यह सुन मैं कुछ हैरान हुआ और कुछ दिल में लज्जित भी कि मेरे विचार कितने निम्न थे और यह सरलचित्त वैद्य कितना महान है। मैंने जब घर जा कर पत्नी को औषधि दिखाई और सारी बात बताई तो उसके मुँह से निकला 'वो इंसान नहीं कोई देवता है और उसकी दी हुई दवा ही हमारे मन की मुराद पूरी करने का कारण बनेंगी।' आज मेरे घर में दो फूल खिले हुए हैं। हम दोनों पति-पत्नी हर समय आपके लिए प्रार्थना करते रहते हैं। इतने साल तक कारोबार ने फ़ुरसत ही न दी कि स्वयं आकर आपसे धन्यवाद के दो शब्द ही कह जाता। इतने बरसों बाद आज भारत आया हूँ और कार केवल यहीं रोकी है।"
विष्णुदत्त नेकहा, "अच्छा!"
पद्मनिधि ने आगे बताया, "वैद्यजी हमारा सारा परिवार इंग्लैंड में सेटल हो चुका है। केवल मेरी एक विधवा बहन अपनी बेटी के साथ भारत में रहती है। हमारी भान्जी विवाह अगले हफ्ते हफ्ते है। न जाने क्यों जब-जब मैं अपनी भान्जी के भात के लिए कोई सामान खरीदता था तो मेरी आँखों के सामने आपकी वह छोटी-सी बेटी भी आ जाती थी और हर सामान मैंदुगना खरीद लेता था। मैं आपके विचारों को जानता था कि संभवतः आप वह सामान न लें किन्तु मुझे लगता था कि मेरी अपनी सगी भान्जी के साथ जो चेहरा मुझे बार-बार दिख रहा है वह भी मेरी भान्जी ही है। मुझे लगता था कि ईश्वर ने इस भान्जी के विवाह में भी मुझे भात भरने की ज़िम्मेदारी दी है।"
विष्णुदत्त  की आँखें आश्चर्य से खुली की खुली रह गईं और बहुत धीमी आवाज़ में बोले, ''पद्मनिधिजी जीआप जो कुछ कह रहे हैं मुझे समझ नहीं आ रहा कि ईश्वर की यह क्या माया है। आप मेरी श्रीमती के हाथ की लिखी हुई यह चिठ्ठी देखिये।" औरविष्णुदत्तने चिट्ठी खोलकर पद्मनिधि को पकड़ा दी। वहाँ उपस्थित सभी यह देखकर हैरान रह गए कि ''दहेज का सामान'' के सामने लिखा हुआ था ''यह काम परमात्मा का हैपरमात्मा जाने।''
काँपती-सी आवाज़ में विष्णुदत्त बोले, "पद्मनिधि जीविश्वास कीजिये कि आज तक कभी ऐसा नहीं हुआ कि पत्नी ने चिठ्ठी पर आवश्यकता लिखी हो और भगवान ने उसी दिन उसकी व्यवस्था न कर दी हो। आपकी बातें सुनकर तो लगता है कि भगवान को पता होता है कि किस दिन मेरी श्रीमती क्या लिखने वाली हैं अन्यथा आपसे इतने दिन पहले ही सामान ख़रीदना आरम्भ न करवा दिया होता परमात्मा ने।"
वैद्यजी ने आगे कहा, "जबसे होश सँभाला हैएक ही पाठ पढ़ा है कि सुबह परमात्मा का आभार करोशाम को अच्छा दिन गुज़रने का आभार करोखाते समय उसका आभार करोसोते समय उसका आभार करो। हर बात के लिए परमात्मा को धन्यवाद दो। आज ईश्वर ने अपनी असीम कृपा मुझपर बरसाई है।"
यह देख वहा मौजूद सारे व्यक्ति परमात्मा की जय जयकार करने लगे। 


यहाँ तक कहानी पढ़ने के लिए धन्यवाद। अगर कहानी अच्छी लगी हो तो एकबार आपभी परमात्मा की जय जयकार कमेंट में करिये और कहानी को शेयरकरिये। 


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