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Thursday, 20 May 2021

श्री हनुमान चालीसा अर्थ सहित

जय श्री राम सखियों और सखाओ। आज हनुमान चालीसा अर्थसहित आपके साथ साझा कर रही हु। कृपया पूरा अर्थ पढ़े और उसे समझने की कोशीश करे। 

Image: Ramkrishna Vedanta Society 


श्री गुरु चरण सरोज रज, निज मन मुकुरु सुधारि।

बरनऊँ रघुवर बिमल जसु, जो दायकु फल चारि।

अर्थ→श्री गुरु महाराज के चरणकमलों की धूलि से अपने मन रुपी दर्पण को पवित्र करके श्री रघुवीर के निर्मल यश का वर्णन करता हूँ, जो चारों फल धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को देने वाला हे। 

हनुमानजी समर्पण की प्रतिमूर्ति है जैसे वे रामजी को समर्पित थे वैसे ही हमें अपने गुरुदेव को समर्पित होना है। 

 

बुद्धिहीन तनु जानिके, सुमिरो पवन-कुमार।

बल बुद्धि विद्या देहु मोहिं, हरहु कलेश विकार।

अर्थहे पवन कुमार! मैं आपको सुमिरन करता हूँ। आप तो जानते ही हैं,कि मेरा शरीर और बुद्धि निर्बल है। मुझे शारीरिक बल,सदबुद्धि एवं ज्ञान दीजिए और मेरे दुःखों व दोषों का नाश कर दीजिए। 

ईश्वर वैसे तो सब जानते है पर आप अगर पुरे समर्पण से उन्हें कुछ कहोगे तो वे आपकी अवश्य सुनेंगे। बल और बुद्धि का अद्भुत मेल हनुमानजी है और जब आप उनकी शरण में है तो आपके मन के विकार अवश्य दूर होंगे और आपको हर तरह का बल मिलेगा। 

 

जय हनुमान ज्ञान गुण सागर। जय कपीस तिहुँ लोक उजागर॥१

अर्थ श्री हनुमान जी आपकी जय हो। आपका ज्ञान और गुण अथाह सागर है। हे कपीश्वर! आपकी जय हो!तीनों लोकों, स्वर्ग लोक, भूलोक और पाताल लोक में आपकी कीर्ति है। 

जैसे हनुमानजी अथाह गुणों के सागर है वैसे ही हमारा मन है सागर समान अथाह - उस सागर में भी ऐसे गुण छूपे है जो आपको कीर्तिमान बना सकते है। 

 

राम दूत अतुलित बलधामा। अंजनी पुत्र पवन सुत नामा॥२

अर्थहे पवनसुत हे अंजनीनंदन, हे रामदूत, आपके समान दूसरा बलवान नही है। 

हनुमान जी रामजी के दूत थे और उनके सामान बलवान इस संसार में कोई नहीं। पर हमारे लिए हमारा मन हनुमानजी के सामान काम कर सकता है जरुरत है तो बस उस बलवान मन के बल को समझने की। 


महावीर विक्रम बजरंगी । कुमति निवार सुमति के संगी॥३

 अर्थहे महावीर बजरंग बली! आप विशेष पराक्रम वाले है। आप खराब बुद्धि को दूर करते है,और अच्छी बुद्धि वालो के साथी,सहायक है।

मन के बल को समझना है तो अपने मन को अकुशल कर्मो (दुष्कर्म) से दूर कर कुशल  कर्मो (सत्कर्म) में लगाना चाहिए। जैसे बाल्यकाल में ही हनुमानजी ने अपने आप को रामजी को समर्पित कर दिया था वैसे ही हमें हमारे मन को कुशल कार्यों के लिए समर्पित करना है। हर अच्छा कर्म राम कर्म है ये हमेशा याद रखना चाहिए। 

 

कंचन बरन बिराज सुबेसा। कानन कुण्डल कुंचित केसा॥४

अर्थआप सुनहरे रंगसुन्दर वस्त्रों, कानों में कुण्डल और घुंघराले बालों से सुशोभित हैं।

अगर आप कुशल कर्मों में अपने मन को लगाओगे तो वह भी सुनहरा हो जायेगा। वह भी सुशोभित हो जायेगा। 


हाथ बज्र और ध्वजा विराजे। काँधे मूँज जनेऊ साजै॥५

अर्थआपके हाथ मे बज्र और ध्वजा है और कन्धे पर मूंज के जनेऊ की शोभा है।

मुंज का जनेऊ का अर्थ है की हनुमानजी विद्या ग्रहण करते है क्यों की इस मुंज के जनेऊ को धारण करने के बाद ही गुरुकुल में ज्ञान प्राप्ति के लिए प्रवेश मिल सकता था। हाथ में बज्र है इसका मतलब है हाथ में शस्त्र है और ध्वजा का अर्थ है की वे सदैव विजयी रहते है। इसका हमने यह बोध लेना है की हमने भी सदैव विद्या ग्रहण करते रहना चाहिए और अनुशासन तथा निरंतरता के शस्त्र का उपयोग कर विजय की पताका ऊंची करनी चाहिए। 

 

शंकर सुवन केसरी नंदन, तेज प्रताप महा जग वंदन॥६

अर्थ हे शंकर के अवतार! हे केसरी नंदन आपके पराक्रम और महान यश की संसार भर मे वन्दना होती है।

जब हम स्वयं अनुशासित होकर हमारे लक्ष की और निरंतर चलना शुरू करेंगे तभी हमें यश मिलेगा और हमारी भी सब जगह स्तुती होंगी। 


विद्यावान गुणी अति चातुर। राम काज करिबे को आतुर॥७

अर्थ आप प्रकान्ड विद्या निधान है, गुणवान और अत्यन्त कार्य कुशल होकर श्री राम काज करने के लिए आतुर रहते है।

ये बात फिरसे कहते है की हर कुशल कार्य यह राम कार्य है। हम हनुमानजी की तरह विद्या के सागर तो नहीं ही सकते पर हा हम जो भी कर रहे है उसमे हमने निपुणता प्राप्त करनी चाहिए और सदैव अच्छे काम बड़ी उत्तमता के साथ करना चाहिए। 

 

प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया। राम लखन सीता मनबसिया॥८

अर्थ आप श्री राम चरित सुनने मे आनन्द रस लेते है। श्री राम, सीता और लखन आपके हृदय मे बसे रहते है।

यहाँ हनुमानजी प्रभु कथा में आनंद लेते है रस लेते है इसका मतलब है वे बड़े ध्यान से उसे सुन रहे है। रामजी का हो या ईश्वर के अन्य किसी अवतार का हो हमने चरित्र इसी तरह ध्यान से सुनना चाहिए पर सिर्फ सुनना नहीं है हमने उस कथा से यह बोध लेना चाहिए की जैसे समाज के लिए प्रभु ने महान कार्य किये वैसे ही हमने भी हमारे इर्द गिर्द के लोगो के लिए कुछ अच्छा करने की कोशीश करते रहना चाहिए। 


सूक्ष्म रुप धरि सियहिं दिखावा। बिकट रुप धरि लंक जरावा॥९

अर्थआपने अपना बहुत छोटा रुप धारण करके सीता जी को दिखलाया और भयंकर रूप करके लंका को जलाया।

मनुष्य का मन भी मर्कट समान है वो कभी एक जगह रहता ही नहीं। हनुमानजी एक साधारण मर्कट रह जाते अगर वह प्रभु की शरण नहीं जाते। हमारा मन भी हनुमानजी समान बलवान हो सकता है बस हमें भी उस परम शक्ति को समर्पित होना है जो इस विश्व को चलाती है। जैसे जैसे साधना में गहरे उतरते जायेगे वैसे वैसे मन सूक्ष्म होता जायेगा और मन में बसी सीता मैया के दर्शन कर पायेगा और मनके विकारों की लंका जला देगा। 

 

भीम रुप धरि असुर संहारे। रामचन्द्र के काज संवारे॥१०

अर्थ आपने विकराल रुप धारण करके राक्षसों को मारा और श्री रामचन्द्र जी के उदेश्यों को सफल कराया।

एक रामजी हमारे अंतर्मन में भी विराजमान होते है और वह कहते है सदैव सत्कर्म करे, कुशल कर्म करे। आज हमें किसी बाहरी शत्रु से नहीं लड़ना है न ही हनुमानजी  तरह किसी बाहरी राक्षस को मारना है। पर हमारे रामजी के कार्य में हमारे मन के विकार ही कई बाधाए उत्पन्न करते है बस हमें उनका संहार करना है। 


लाय सजीवन लखन जियाये। श्री रघुवीर हरषि उर लाये॥१

अर्थ आपने संजीवनी बुटी लाकर लक्ष्मण जी को जिलाया जिससे श्री रघुवीर ने हर्षित होकर आपको हृदय से लगा लिया।

माना हम सब सामान्य मनुष्य है और संजीवनी बूटी लाकर किसी के प्राण बचाने जितने महान काम हम कर नहीं सकते पर क्या हम सब मिलकर एक  दूसरे की सहायता जरूर कर सकते है जिससे फ़िलहाल जो कोरोना की वजह से भयावह स्थिती आयी है उसका हम सामना कर सकते है। जिनकी भी सहायता करेंगे उनके ह्रदय में जगा लेंगे। 


रघुपति कीन्हीं बहुत बड़ाई। तुम मम प्रिय भरत सम भाई॥१२

अर्थ श्री रामचन्द्र ने आपकी बहुत प्रशंसा की और कहा की तुम मेरे भरत जैसे प्यारे भाई हो।

औरों की सहायता करके आपको प्रशंसा ही मिलेंगी। 


सहस बदन तुम्हरो जस गावैं। अस कहि श्री पति कंठ लगावैं॥१४

अर्थ श्री राम ने आपको यह कहकर हृदय से लगा लिया की तुम्हारा यश हजार मुख से सराहनीय है।

अगर आप सत्कर्म करेंगे तो आपकी स्तुती करने वाले कई लोग रहेंगे। 


सनकादिक ब्रह्मादि मुनीसा। नारद, सारद सहित अहीसा॥१४

अर्थश्री सनक, श्री सनातन, श्री सनन्दन, श्री सनत्कुमार आदि मुनि, ब्रह्मा आदि देवता, नारदजी, सरस्वती जी, शेषनाग जी सब आपका गुण गान करते है।

 

जम कुबेर दिगपाल जहाँ ते। कबि कोबिद कहि सके कहाँ ते॥१५

अर्थ यमराज, कुबेर आदि सब दिशाओं के रक्षक, कवि, विद्वान, पंडित या कोई भी आपके यशका पूर्णतः वर्णन नहीं कर सकते।

 

तुम उपकार सुग्रीवहि कीन्हा। राम मिलाय राजपद दीन्हा॥१६

अर्थ आपनें सुग्रीव जी को श्रीराम से मिलाकर उपकार कियाजिसके कारण वे राजा बने।

हनुमानजी की कृपा से ही आप आपके मन के स्वामी बन सकते है क्युकी उनकी शरण जाते ही मन निर्मल होने लगता है और फिर मन में स्थापित रामजी के दर्शन होने लगते है, उनसे भेट होने लगती है, उनसे संवाद होने लगता है। 

तुम्हरो मंत्र विभीषण माना । लंकेस्वर भए सब जग जाना॥१७

अर्थ आपके उपदेश का विभिषण जी ने पालन किया जिससे वे लंका के राजा बनेइसको सब संसार जानता है।

श्रीरामजी के चरणों में शरण लेने का उपदेश हनुमानजी ने विभीषण को दिया था जिससे वे लंका के राजा बने। कहने का अर्थ यह है की आप अगर अच्छे उपदेश का अनुसरण करेंगे तो आपको भी विजय प्राप्त होंगी। तथा आप अगर अच्छे उपदेश औरो को देंगे तो उनकी भी प्रगति होंगी। 


जुग सहस्त्र जोजन पर भानू । लील्यो ताहि मधुर फल जानू॥१८

अर्थ जो सूर्यसहस्त्र योजन दूरी पर है की उस पर पहुँचने के लिए हजार युग लगते हो ऐसे सूर्य को आपने एक मीठा फल समझकर निगल लिया।

 

प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माहि । लधि लांघि गये अचरज नाहीं॥१९

अर्थ आपने श्री रामचन्द्र जी की अंगूठी मुँह मे रखकर समुद्र को लांघ लिया, इसमें कोई आश्चर्य नही है।

 

दुर्गम काज जगत के जेते । सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते॥२०

अर्थ संसार मे जितने भी कठिन से कठिन काम हो, वो आपकी कृपा से सहज हो जाते है।

मन के मालिक बनने के बाद संसार में जो भी कठिन कर्म है वह हनुमानजी की कृपा से सहज हो जाते है। 


राम दुआरे तुम रखवारे। होत न आज्ञा बिनु पैसा रे ॥२१

अर्थ श्री रामचन्द्र जी के द्वार के आप रखवाले है, जिसमे आपकी आज्ञा बिना किसी को प्रवेश नही मिलता अर्थात आपकी प्रसन्नता के बिना राम कृपा दुर्लभ है।

मन में राम बसे है ही पर उनका दर्शन करना है तो हनुमानजी की तरह साधना में गहरे उतरना पड़ता है। अपने अहंकार को मिटाना पड़ता है तभी तो भक्त और भगवान का संवाद होता है। 


सब सुख लहै तुम्हारी सरना। तुम रक्षक काहूको डरना ॥२२ 

अर्थ जो भी आपकी शरण मे आते है, उसे सुख प्राप्त होता हैऔर जब आप रक्षक है, तो फिर किसी का डर नही रहता।

इसीतरह जब आप प्रभु की शरण जाकर  मन के विकारों को  करने की प्रार्थना करते है तब आपका मन शांत और सुखी होता है और फिर प्रभु कृपा से मन के सारे भय भी समाप्त हो जाते है। 

  

आपन तेज सम्हारो आपै। तीनों लोक हाँक ते काँपै॥२३

 अर्थ आपके सिवाय आपके वेग को कोई नही रोक सकता, आपकी गर्जना से तीनों लोक काँप जाते है।

 

भूत पिशाच निकट नहिं आवै। महावीर जब नाम सुनावै॥२४

अर्थ जहाँ महावीर हनुमान जी का नाम सुनाया जाता है, वहाँ भूत, पिशाच पास भी नही फटक सकते।

 

नासै रोग हरै सब पीरा। जपत निरंतर हनुमत बीरा ॥२५

अर्थ वीर हनुमान जी! आपका निरंतर जप करने से सब रोग चले जाते हैऔर सब पीड़ा मिट जाती है।

 

संकट तें हनुमान छुड़ावै। मन क्रम बचन ध्यानजो लावै॥२६

अर्थ हे हनुमान जी! विचार करने मे, कर्म करने मे और बोलने मे,जिनका ध्यान आपमे रहता है, उनको सब संकटो से आप छुड़ाते है।

 

सब पर राम तपस्वी राजा। तिनके काज सकल तुम साजा॥२७

अर्थ तपस्वी राजा श्री रामचन्द्र जी सबसे श्रेष्ठ है, उनके सब कार्यो को आपने सहज मे कर दिया।

 

और मनोरथ जो कोइ लावै। सोई अमित जीवन फल पावै॥२८

अर्थ जिसपर आपकी कृपा हो, वह कोई भी अभिलाषा करे तो उसे ऐसा फल मिलता है जिसकी जीवन मे कोई सीमा नही होती।

 

चारों जुग परताप तुम्हारा। है परसिद्ध जगत उजियारा॥२९

अर्थ चारो युगों सतयुग, त्रेता, द्वापर तथा कलियुग मे आपका यश फैला हुआ है, जगत मे आपकी कीर्ति सर्वत्र प्रकाशमान है।

 

साधु सन्त के तुम रखवारे। असुर निकंदन राम दुलारे॥३०

अर्थ हे श्री राम के दुलारे ! आप सज्जनों की रक्षा करते है और दुष्टों का नाश करते है।

 

अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता। अस बर दीन जानकी माता॥३१॥

अर्थ आपको माता श्री जानकी से ऐसा वरदान मिला हुआ है, जिससे आप किसी को भी आठों सिद्धियां और नौ निधियां दे सकते है।

अष्ट सिद्धियाँ:

१ ) अणिमा जिससे साधक किसी को दिखाई नही पड़ता और कठिन से कठिन पदार्थ मे प्रवेश कर जाता है।

२ ) महिमा जिसमे योगी अपने को बहुत बड़ा बना देता है।

३ ) गरिमा जिससे साधक अपने को चाहे जितना भारी बना लेता है।

४ ) लघिमा जिससे जितना चाहे उतना हल्का बन जाता है।

५ ) प्राप्ति जिससे इच्छित पदार्थ की प्राप्ति होती है।

६ ) प्राकाम्य जिससे इच्छा करने पर वह पृथ्वी मे समा सकता है, आकाश मे उड़ सकता है।

७ ) ईशित्व जिससे सब पर शासन का सामर्थय हो जाता है।

८ )वशित्व जिससे दूसरो को वश मे किया जाता है।

 

राम रसायन तुम्हरे पासा, सदा रहो रघुपति के दासा॥३२

अर्थ आप निरंतर श्री रघुनाथ जी की शरण मे रहते है, जिससे आपके पास बुढ़ापा और असाध्य रोगों के नाश के लिए राम नाम औषधि है।

 

तुम्हरे भजन राम को पावै। जनम जनम के दुख बिसरावै॥३३

अर्थ आपका भजन करने से श्री राम जी प्राप्त होते है, और जन्म जन्मांतर के दुःख दूर होते है।

 

अन्त काल रघुबर पुर जाई। जहाँ जन्म हरि भक्त कहाई॥३४

अर्थ अंत समय श्री रघुनाथ जी के धाम को जाते है और यदि फिर भी जन्म लेंगे तो भक्ति करेंगे और श्री राम भक्त कहलायेंगे।

 

और देवता चित न धरई। हनुमत सेई सर्व सुख करई॥३५

अर्थ हे हनुमान जी! आपकी सेवा करने से सब प्रकार के सुख मिलते है, फिर अन्य किसी देवता की आवश्यकता नही रहती।

 

संकट कटै मिटै सब पीरा। जो सुमिरै हनुमत बलबीरा॥३६

अर्थ हे वीर हनुमान जी! जो आपका सुमिरन करता रहता है,उसके सब संकट कट जाते है और सब पीड़ा मिट जाती है।

 

जय जय जय हनुमान गोसाईं। कृपा करहु गुरु देवकी नाई॥३७

अर्थ हे स्वामी हनुमान जी!आपकी जय हो, जय हो, जय हो! आप मुझपर कृपालु श्री गुरु जी के समान कृपा कीजिए।

 

जो सत बार पाठ कर कोई। छुटहि बँदि महा सुख होई॥३८

अर्थ जो कोई इस हनुमान चालीसा का सौ बार पाठ करेगा वह सब बन्धनों से छुट जायेगा और उसे परमानन्द मिलेगा।

 

जो यह पढ़ै हनुमान चालीसा। होय सिद्धि साखी गौरीसा॥३९

अर्थ भगवान शंकर ने यह हनुमान चालीसा लिखवाया, इसलिए वे साक्षी है, कि जो इसे पढ़ेगा उसे निश्चय ही सफलता प्राप्त होगी।

 

तुलसीदास सदा हरि चेरा। कीजै नाथ हृदय मँह डेरा॥४०

अर्थ हे नाथ हनुमान जी! तुलसीदास सदा ही श्री राम का दास है। इसलिए आप उसके हृदय मे निवास कीजिए।

 

पवन तनय संकट हरन, मंगल मूरति रुप।

राम लखन सीता सहित, हृदय बसहु सुरभुप॥

अर्थ हे संकट मोचन पवन कुमार! आप आनन्द मंगलो के स्वरुप है। हे देवराज! आप श्री राम, सीता जी और लक्ष्मण सहित मेरे हृदय मे निवास कीजिए।


यहाँ तक आपने पढ़ा इसके लिए धन्यवाद। कई जगह पर मैंने थोड़ा अपना अनुभव अपने शब्दों में लिखा है। आपको अगर यह अर्थ सहित हनुमान चालीसा अच्छी लगी हो तो इसे बुकमार्क करके बार बार पढ़ते रहिये। आपके अनुभव निचे कमेंट करते रहिये ताकि अन्य भक्त भी इसे बार बार पढ़ते रहेंगे और उनका भी भला होगा। आगे शेयर करिये। 


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Saturday, 8 February 2020

सीताराम सीताराम कहिये

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इमेज क्रेडिट: www.bhaktibharat.com


सीता राम सीता राम, सीताराम कहिये,
जाहि विधि राखे राम, ताहि विधि रहिये।

मुख में हो राम नाम, राम सेवा हाथ में,
तू अकेला नाहिं प्यारे, राम तेरे साथ में ।
विधि का विधान जान, हानि लाभ सहिये,
जाहि विधि राखे राम, ताहि विधि रहिये ॥

किया अभिमान तो फिर, मान नहीं पायेगा,
होगा प्यारे वही जो, श्री रामजी को भायेगा ।
फल आशा त्याग, शुभ कर्म करते रहिये,
जाहि विधि राखे राम, ताहि विधि रहिये ॥

ज़िन्दगी की डोर सौंप, हाथ दीनानाथ के,
महलों मे राखे चाहे, झोंपड़ी मे वास दे ।
धन्यवाद निर्विवाद, राम राम कहिये,
जाहि विधि राखे राम, ताहि विधि रहिये ॥

आशा एक रामजी से, दूजी आशा छोड़ दे,
नाता एक रामजी से, दूजे नाते तोड़ दे ।
साधु संग राम रंग, अंग अंग रंगिये,
काम रस त्याग प्यारे, राम रस पगिये ॥

सीता राम सीता राम, सीताराम कहिये,
जाहि विधि राखे राम, ताहि विधि रहिये ।

Monday, 28 October 2019

मेरा राम तो मेरा हिंदुस्तान है

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Image Credit: Latestly


राम नहीं मिलते ईंटों में गारा में
राम मिलें निर्धन की आँसू-धारा में
राम मिलें हैं वचन निभाती आयु को
राम मिले हैं घायल पड़े जटायु को
राम मिलेंगे अंगद वाले पाँव में
राम मिले हैं पंचवटी की छाँव में
राम मिलेंगे मर्यादा से जीने में
राम मिलेंगे बजरंगी के सीने में
राम मिले हैं वचनबद्ध वनवासों में
राम मिले हैं केवट के विश्वासों में
राम मिले अनुसुइया की मानवता को
राम मिले सीता जैसी पावनता को
राम मिले ममता की माँ कौशल्या को
राम मिले हैं पत्थर बनी आहिल्या को
राम नहीं मिलते मंदिर के फेरों में
राम मिले शबरी के झूठे बेरों में
मै भी इक सौंगंध राम की खाता हूँ
मै भी गंगाजल की कसम उठाता हूँ
मेरी भारत माँ मुझको वरदान है
मेरी पूजा है मेरा अरमान है
मेरा पूरा भारत धर्म-स्थान है
मेरा राम तो मेरा हिंदुस्तान है

Thursday, 17 October 2019

घास का तिनका

रामायण में एक घास के तिनके का भी रहस्य है, जो हर किसी को नहीं मालूम क्योंकि आज तक हमने हमारे ग्रंथो को
सिर्फ पढ़ा, समझने की कोशिश नहीं की।

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Image credit: Exotic India

रावण ने जब माँ सीता जी का हरण करके लंका ले गया तब लंका मे सीता जी वट वृक्ष के नीचे बैठ कर चिंतन करने लगी। रावण बार बार आकर माँ सीता जी को धमकाता था, लेकिन माँ सीता जी कुछ नहीं बोलती थी। यहाँ तक की रावण ने श्री राम जी के वेश भूषा मे आकर माँ सीता जी को भ्रमित करने की भी कोशिश की लेकिन फिर भी सफल नहीं हुआ। रावण थक हार कर जब अपने शयन कक्ष मे गया तो मंदोदरी ने उससे कहा, "आप  तो राम का वेश धर कर गये थे, फिर क्या हुआ?"
रावण बोला, "जब मैं राम का रूप लेकर सीता के समक्ष गया तो सीता मुझे नजर ही नहीं आ रही थी ।"
रावण अपनी समस्त ताकत लगा चुका था लेकिन जिस जगत जननी माँ को आज तक कोई नहीं समझ सका, उन्हें रावण भी कैसे समझ पाता !

रावण एक बार फिर आया और बोला, "मैं तुमसे सीधे सीधे संवाद करता हूँ लेकिन तुम कैसी नारी हो कि मेरे आते ही घास का तिनका उठाकर उसे ही घूर-घूर कर देखने लगती हो, क्या घास का तिनका तुम्हें राम से भी ज्यादा प्यारा है?" रावण के इस प्रश्न को सुनकर माँ सीता जी बिलकुल चुप हो गयी और उनकी आँखों से आसुओं की धार बह पड़ी।

इसकी सबसे बड़ी वजह थी कि जब श्री राम जी का विवाह माँ सीता जी के साथ हुआ,तब सीता जी का बड़े आदर सत्कार के साथ गृह प्रवेश भी हुआ। बहुत उत्सव मनाया गया।

प्रथानुसार नव वधू विवाह पश्चात जब ससुराल आती है तो उसके हाथ से कुछ मीठा पकवान बनवाया जाता है, ताकि जीवन भर घर पर मिठास बनी रहे। इसलिए माँ सीता जी ने उस दिन अपने हाथों से घर पर खीर बनाई और समस्त परिवार, राजा दशरथ एवं तीनों रानियों  सहित चारों भाईयों और ऋषि संत भी भोजन पर आमंत्रित थे।

माँ सीता ने सभी को खीर परोसना शुरू किया, और भोजन शुरू होने ही वाला था की ज़ोर से एक हवा का झोका आया। सभी ने अपनी अपनी पत्तलें सम्भाली,सीता जी बड़े गौर स सब देख रही थी।

ठीक उसी समय राजा दशरथ जी की खीर पर एक छोटा सा घास का तिनका गिर गया जिसे माँ सीता जी ने देख लिया। लेकिन अब खीर मे हाथ कैसे डालें ये प्रश्न आ गया। माँ सीता जी ने दूर से ही उस तिनके को घूर कर देखा वो जल कर राख की एक छोटी सी बिंदु बनकर रह गया। सीता जी ने सोचा 'अच्छा हुआ किसी ने नहीं देखा'। लेकिन राजा दशरथ माँ सीता जी के इस चमत्कार को देख रहे थे। फिर भी दशरथ जी चुप रहे और अपने कक्ष पहुचकर माँ सीता जी को बुलवाया ।

फिर उन्होंने सीताजी जे कहा, "मैंने आज भोजन के समय आप के चमत्कार को देख लिया था । आप साक्षात जगत जननी स्वरूपा हैं, लेकिन एक बात आप मेरी जरूर याद रखना। आपने जिस नजर से आज उस तिनके को देखा था उस नजर से आप अपने शत्रु को भी कभी मत देखना।"

इसीलिए माँ सीता जी के सामने जब भी रावण आता था तो वो उस घास के तिनके को उठाकर राजा दशरथ जी की बात याद कर लेती थी।

तृण धर ओट कहत वैदेही
सुमिरि अवधपति परम् सनेही

इसलिये माता सीता जी चाहती तो रावण को उस जगह पर ही राख़ कर सकती थी, लेकिन राजा दशरथ जी को दिये वचन एवं भगवान श्रीराम को रावण-वध का श्रेय दिलाने हेतु वो शांत रही ! ऐसी विशलहृदया थीं हमारी जानकी माता ।

Friday, 28 September 2018

14 वर्ष का वनवास

चौदह वर्ष के वनवास के दौरान प्रभु श्रीराम कहाँ कहाँ रहे???????

प्रभु श्रीराम को 14 वर्ष का वनवास हुआ। इस वनवास काल में श्रीराम ने कई ऋषि-मुनियों से शिक्षा और विद्या ग्रहण की, तपस्या की और भारत के आदिवासी, वनवासी और तमाम तरह के भारतीय समाज को संगठित कर उन्हें धर्म के मार्ग पर चलाया। संपूर्ण भारत को उन्होंने एक ही विचारधारा के सूत्र में बांधा, लेकिन इस दौरान उनके साथ कुछ ऐसा भी घटा जिसने उनके जीवन को बदल कर रख दिया।

जाने-माने इतिहासकार और पुरातत्वशास्त्री अनुसंधानकर्ता डॉ. राम अवतार ने श्रीराम और सीता के जीवन की घटनाओं से जुड़े ऐसे 200 से भी अधिक स्थानों का पता लगाया है, जहां आज भी तत्संबंधी स्मारक स्थल विद्यमान हैं, जहां श्रीराम और सीता रुके या रहे थे। वहां के स्मारकों, भित्तिचित्रों, गुफाओं आदि स्थानों के समय-काल की जांच-पड़ताल वैज्ञानिक तरीकों से की। आओ जानते हैं कुछ प्रमुख स्थानों के बारे में;

1. श्रृंगवेरपुर: - राम को जब वनवास हुआ तो वाल्मीकि रामायण और शोधकर्ताओं के अनुसार वे सबसे पहले तमसा नदी पहुंचे, जो अयोध्या से 20 किमी दूर है। इसके बाद उन्होंने गोमती नदी पार की और प्रयागराज (इलाहाबाद) से 20-22 किलोमीटर दूर वे श्रृंगवेरपुर पहुंचे, जो निषादराज गुह का राज्य था। यहीं पर गंगा के तट पर उन्होंने केवट से गंगा पार करने को कहा था।

2. सिंगरौर: - इलाहाबाद से लगभग 35.2 किमी उत्तर-पश्चिम की ओर स्थित ‘सिंगरौर’ नामक स्थान ही प्राचीन समय में श्रृंगवेरपुर नाम से परिज्ञात था। रामायण में इस नगर का उल्लेख आता है। यह नगर गंगा घाटी के तट पर स्थित था। महाभारत में इसे ‘तीर्थस्थल’ कहा गया है।

3. कुरई: - इलाहाबाद जिले में ही कुरई नामक एक स्थान है, जो सिंगरौर के निकट गंगा नदी के तट पर स्थित है। गंगा के उस पार सिंगरौर तो इस पार कुरई। सिंगरौर में गंगा पार करने के पश्चात श्रीराम इसी स्थान पर उतरे थे।

इस ग्राम में एक छोटा-सा मंदिर है, जो स्थानीय लोकश्रुति के अनुसार उसी स्थान पर है, जहां गंगा को पार करने के पश्चात राम, लक्ष्मण और सीताजी ने कुछ देर विश्राम किया था।

4. चित्रकूट के घाट पर: - कुरई से आगे चलकर श्रीराम अपने भाई लक्ष्मण और पत्नी सहित प्रयाग पहुंचे थे। प्रयाग को वर्तमान में इलाहाबाद कहा जाता है। यहां गंगा-जमुना का संगम स्थल है। हिन्दुओं का यह सबसे बड़ा तीर्थस्थान है। प्रभु श्रीराम ने संगम के समीप यमुना नदी को पार किया और फिर पहुंच गए चित्रकूट। यहां स्थित स्मारकों में शामिल हैं, वाल्मीकि आश्रम, मांडव्य आश्रम, भरतकूप इत्यादि।

चित्रकूट में श्रीराम के दुर्लभ प्रमाण,,चित्रकूट वह स्थान है, जहां राम को मनाने के लिए भरत अपनी सेना के साथ पहुंचते हैं। तब जब दशरथ का देहांत हो जाता है। भारत यहां से राम की चरण पादुका ले जाकर उनकी चरण पादुका रखकर राज्य करते हैं।

5. अत्रि ऋषि का आश्रम: - चित्रकूट के पास ही सतना मध्यप्रदेश स्थित अत्रि ऋषि का आश्रम था। महर्षि अत्रि चित्रकूट के तपोवन में रहा करते थे। वहां श्रीराम ने कुछ वक्त बिताया। अत्रि ऋषि ऋग्वेद के पंचम मंडल के द्रष्टा हैं। अत्रि ऋषि की पत्नी का नाम है अनुसूइया, जो दक्ष प्रजापति की चौबीस कन्याओं में से एक थी।

अत्रि पत्नी अनुसूइया के तपोबल से ही भगीरथी गंगा की एक पवित्र धारा चित्रकूट में प्रविष्ट हुई और ‘मंदाकिनी’ नाम से प्रसिद्ध हुई। ब्रह्मा, विष्णु व महेश ने अनसूइया के सतीत्व की परीक्षा ली थी, लेकिन तीनों को उन्होंने अपने तपोबल से बालक बना दिया था। तब तीनों देवियों की प्रार्थना के बाद ही तीनों देवता बाल रूप से मुक्त हो पाए थे। फिर तीनों देवताओं के वरदान से उन्हें एक पुत्र मिला, जो थे महायोगी ‘दत्तात्रेय’। अत्रि ऋषि के दूसरे पुत्र का नाम था ‘दुर्वासा’। दुर्वासा ऋषि को कौन नहीं जानता?

अत्रि के आश्रम के आस-पास राक्षसों का समूह रहता था। अत्रि, उनके भक्तगण व माता अनुसूइया उन राक्षसों से भयभीत रहते थे। भगवान श्रीराम ने उन राक्षसों का वध किया। वाल्मीकि रामायण के अयोध्या कांड में इसका वर्णन मिलता है।

प्रातःकाल जब राम आश्रम से विदा होने लगे तो अत्रि ऋषि उन्हें विदा करते हुए बोले, ‘हे राघव! इन वनों में भयंकर राक्षस तथा सर्प निवास करते हैं, जो मनुष्यों को नाना प्रकार के कष्ट देते हैं। इनके कारण अनेक तपस्वियों को असमय ही काल का ग्रास बनना पड़ा है। मैं चाहता हूं, तुम इनका विनाश करके तपस्वियों की रक्षा करो।’

राम ने महर्षि की आज्ञा को शिरोधार्य कर उपद्रवी राक्षसों तथा मनुष्य का प्राणांत करने वाले भयानक सर्पों को नष्ट करने का वचन देखर सीता तथा लक्ष्मण के साथ आगे के लिए प्रस्थान किया।

6. दंडकारण्य: - अत्रि ऋषि के आश्रम में कुछ दिन रुकने के बाद श्रीराम ने मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के घने जंगलों को अपना आश्रय स्थल बनाया। यह जंगल क्षेत्र था दंडकारण्य। ‘अत्रि-आश्रम’ से ‘दंडकारण्य’ आरंभ हो जाता है। छत्तीसगढ़ के कुछ हिस्सों पर राम के नाना और कुछ पर बाणासुर का राज्य था। यहां के नदियों, पहाड़ों, सरोवरों एवं गुफाओं में राम के रहने के सबूतों की भरमार है। यहीं पर राम ने अपना वनवास काटा था। यहां वे लगभग 10 वर्षों से भी अधिक समय तक रहे थे।

‘अत्रि-आश्रम’ से भगवान राम मध्यप्रदेश के सतना पहुंचे, जहां ‘रामवन’ हैं। मध्यप्रदेश एवं छत्तीसगढ़ क्षेत्रों में नर्मदा व महानदी नदियों के किनारे 10 वर्षों तक उन्होंने कई ऋषि आश्रमों का भ्रमण किया। दंडकारण्य क्षेत्र तथा सतना के आगे वे विराध सरभंग एवं सुतीक्ष्ण मुनि आश्रमों में गए। बाद में सतीक्ष्ण आश्रम वापस आए। पन्ना, रायपुर, बस्तर और जगदलपुर में कई स्मारक विद्यमान हैं। उदाहरणत: मांडव्य आश्रम, श्रृंगी आश्रम, राम-लक्ष्मण मंदिर आदि।

शहडोल (अमरकंटक): - राम वहां से आधुनिक जबलपुर, शहडोल (अमरकंटक) गए होंगे। शहडोल से पूर्वोत्तर की ओर सरगुजा क्षेत्र है। यहां एक पर्वत का नाम ‘रामगढ़’ है। 30 फीट की ऊंचाई से एक झरना जिस कुंड में गिरता है, उसे ‘सीता कुंड’ कहा जाता है। यहां वशिष्ठ गुफा है। दो गुफाओं के नाम ‘लक्ष्मण बोंगरा’ और ‘सीता बोंगरा’ हैं। शहडोल से दक्षिण-पूर्व की ओर बिलासपुर के आसपास छत्तीसगढ़ है।

वर्तमान में करीब 92,300 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में फैले इस इलाके के पश्चिम में अबूझमाड़ पहाड़ियां तथा पूर्व में इसकी सीमा पर पूर्वी घाट शामिल हैं। दंडकारण्य में छत्तीसगढ़, ओडिशा एवं आंध्रप्रदेश राज्यों के हिस्से शामिल हैं। इसका विस्तार उत्तर से दक्षिण तक करीब 320 किमी तथा पूर्व से पश्चिम तक लगभग 480 किलोमीटर है।

दंडक राक्षस के कारण इसका नाम दंडकारण्य पड़ा। यहां रामायण काल में रावण के सहयोगी बाणासुर का राज्य था। उसका इन्द्रावती, महानदी और पूर्व समुद्र तट, गोइंदारी (गोदावरी) तट तक तथा अलीपुर, पारंदुली, किरंदुली, राजमहेन्द्री, कोयापुर, कोयानार, छिन्दक कोया तक राज्य था। वर्तमान बस्तर की ‘बारसूर’ नामक समृद्ध नगर की नींव बाणासुर ने डाली, जो इन्द्रावती नदी के तट पर था। यहीं पर उसने ग्राम देवी कोयतर मां की बेटी माता माय (खेरमाय) की स्थापना की। बाणासुर द्वारा स्थापित देवी दांत तोना (दंतेवाड़िन) है। यह क्षेत्र आजकल दंतेवाड़ा के नाम से जाना जाता है। यहां वर्तमान में गोंड जाति निवास करती है तथा समूचा दंडकारण्य अब नक्सलवाद की चपेट में है।

इसी दंडकारण्य का ही हिस्सा है आंध्रप्रदेश का एक शहर भद्राचलम। गोदावरी नदी के तट पर बसा यह शहर सीता-रामचंद्र मंदिर के लिए प्रसिद्ध है। यह मंदिर भद्रगिरि पर्वत पर है। कहा जाता है कि श्रीराम ने अपने वनवास के दौरान कुछ दिन इस भद्रगिरि पर्वत पर ही बिताए थे।

स्थानीय मान्यता के मुताबिक दंडकारण्य के आकाश में ही रावण और जटायु का युद्ध हुआ था और जटायु के कुछ अंग दंडकारण्य में आ गिरे थे। ऐसा माना जाता है कि दुनियाभर में सिर्फ यहीं पर जटायु का एकमात्र मंदिर है।

दंडकारण्य क्षे‍त्र की चर्चा पुराणों में विस्तार से मिलती है। इस क्षेत्र की उत्पत्ति कथा महर्षि अगस्त्य मुनि से जुड़ी हुई है। यहीं पर उनका महाराष्ट्र के नासिक के अलावा एक आश्रम था।

7. पंचवटी, नासिक: - दण्डकारण्य में मुनियों के आश्रमों में रहने के बाद श्रीराम कई नदियों, तालाबों, पर्वतों और वनों को पार करने के पश्चात नासिक में अगस्त्य मुनि के आश्रम गए। मुनि का आश्रम नासिक के पंचवटी क्षेत्र में था। त्रेतायुग में लक्ष्मण व सीता सहित श्रीरामजी ने वनवास का कुछ समय यहां बिताया।

उस काल में पंचवटी जनस्थान या दंडक वन के अंतर्गत आता था। पंचवटी या नासिक से गोदावरी का उद्गम स्थान त्र्यंम्बकेश्वर लगभग 32 किमी दूर है। वर्तमान में पंचवटी भारत के महाराष्ट्र के नासिक में गोदावरी नदी के किनारे स्थित विख्यात धार्मिक तीर्थस्थान है।

अगस्त्य मुनि ने श्रीराम को अग्निशाला में बनाए गए शस्त्र भेंट किए। नासिक में श्रीराम पंचवटी में रहे और गोदावरी के तट पर स्नान-ध्यान किया। नासिक में गोदावरी के तट पर पांच वृक्षों का स्थान पंचवटी कहा जाता है। ये पांच वृक्ष थे- पीपल, बरगद, आंवला, बेल तथा अशोक वट। यहीं पर सीता माता की गुफा के पास पांच प्राचीन वृक्ष हैं जिन्हें पंचवट के नाम से जाना जाता है। माना जाता है कि इन वृक्षों को राम-सीमा और लक्ष्मण ने अपने हाथों से लगाया था।

यहीं पर लक्ष्मण ने शूर्पणखा की नाक काटी थी। राम-लक्ष्मण ने खर व दूषण के साथ युद्ध किया था। यहां पर मारीच वध स्थल का स्मारक भी अस्तित्व में है। नासिक क्षेत्र स्मारकों से भरा पड़ा है, जैसे कि सीता सरोवर, राम कुंड, त्र्यम्बकेश्वर आदि। यहां श्रीराम का बनाया हुआ एक मंदिर खंडहर रूप में विद्यमान है।

मरीच का वध पंचवटी के निकट ही मृगव्याधेश्वर में हुआ था। गिद्धराज जटायु से श्रीराम की मैत्री भी यहीं हुई थी। वाल्मीकि रामायण, अरण्यकांड में पंचवटी का मनोहर वर्णन मिलता है।

8. सीताहरण का स्थान सर्वतीर्थ: - नासिक क्षेत्र में शूर्पणखा, मारीच और खर व दूषण के वध के बाद ही रावण ने सीता का हरण किया और जटायु का भी वध किया जिसकी स्मृति नासिक से 56 किमी दूर ताकेड गांव में ‘सर्वतीर्थ’ नामक स्थान पर आज भी संरक्षित है।

जटायु की मृत्यु सर्वतीर्थ नाम के स्थान पर हुई, जो नासिक जिले के इगतपुरी तहसील के ताकेड गांव में मौजूद है। इस स्थान को सर्वतीर्थ इसलिए कहा गया, क्योंकि यहीं पर मरणासन्न जटायु ने सीता माता के बारे में बताया। रामजी ने यहां जटायु का अंतिम संस्कार करके पिता और जटायु का श्राद्ध-तर्पण किया था। इसी तीर्थ पर लक्ष्मण रेखा थी।

9.पर्णशाला, भद्राचलम: - पर्णशाला आंध्रप्रदेश में खम्माम जिले के भद्राचलम में स्थित है। रामालय से लगभग 1 घंटे की दूरी पर स्थित पर्णशाला को ‘पनशाला’ या ‘पनसाला’ भी कहते हैं। हिन्दुओं के प्रमुख धार्मिक स्थलों में से यह एक है। पर्णशाला गोदावरी नदी के तट पर स्थित है। मान्यता है कि यही वह स्थान है, जहां से सीताजी का हरण हुआ था। हालांकि कुछ मानते हैं कि इस स्थान पर रावण ने अपना विमान उतारा था।

इस स्थल से ही रावण ने सीता को पुष्पक विमान में बिठाया था यानी सीताजी ने धरती यहां छोड़ी थी। इसी से वास्तविक हरण का स्थल यह माना जाता है। यहां पर राम-सीता का प्राचीन मंदिर है।

10. सीता की खोज तुंगभद्रा तथा कावेरी नदियों के क्षेत्र: - सर्वतीर्थ जहां जटायु का वध हुआ था, वह स्थान सीता की खोज का प्रथम स्थान था। उसके बाद श्रीराम-लक्ष्मण तुंगभद्रा तथा कावेरी नदियों के क्षेत्र में पहुंच गए। तुंगभद्रा एवं कावेरी नदी क्षेत्रों के अनेक स्थलों पर वे सीता की खोज में गए।

11. शबरी का आश्रम पम्पा सरोवर: - तुंगभद्रा और कावेरी नदी को पार करते हुए राम और लक्ष्‍मण चले सीता की खोज में। जटायु और कबंध से मिलने के पश्‍चात वे ऋष्यमूक पर्वत पहुंचे। रास्ते में वे पम्पा नदी के पास शबरी आश्रम भी गए, जो आजकल केरल में स्थित है।

पम्पा नदी भारत के केरल राज्य की तीसरी सबसे बड़ी नदी है। इसे ‘पम्बा’ नाम से भी जाना जाता है। ‘पम्पा’ तुंगभद्रा नदी का पुराना नाम है। श्रावणकौर रजवाड़े की सबसे लंबी नदी है। इसी नदी के किनारे पर हम्पी बसा हुआ है। यह स्थान बेर के वृक्षों के लिए आज भी प्रसिद्ध है। पौराणिक ग्रंथ ‘रामायण’ में भी हम्पी का उल्लेख वानर राज्य किष्किंधा की राजधानी के तौर पर किया गया है।

12. हनुमान से भेंट: - मलय पर्वत और चंदन वनों को पार करते हुए वे ऋष्यमूक पर्वत की ओर बढ़े। यहां उन्होंने हनुमान और सुग्रीव से भेंट की, सीता के आभूषणों को देखा और श्रीराम ने बाली का वध किया।

ऋष्यमूक पर्वत वाल्मीकि रामायण में वर्णित वानरों की राजधानी किष्किंधा के निकट स्थित था। इसी पर्वत पर श्रीराम की हनुमान से भेंट हुई थी। बाद में हनुमान ने राम और सुग्रीव की भेंट करवाई, जो एक अटूट मित्रता बन गई। जब महाबली बाली अपने भाई सुग्रीव को मारकर किष्किंधा से भागा तो वह ऋष्यमूक पर्वत पर ही आकर छिपकर रहने लगा था।

ऋष्यमूक पर्वत तथा किष्किंधा नगर कर्नाटक के हम्पी, जिला बेल्लारी में स्थित है। विरुपाक्ष मंदिर के पास से ऋष्यमूक पर्वत तक के लिए मार्ग जाता है। यहां तुंगभद्रा नदी (पम्पा) धनुष के आकार में बहती है। तुंगभद्रा नदी में पौराणिक चक्रतीर्थ माना गया है। पास ही पहाड़ी के नीचे श्रीराम मंदिर है। पास की पहाड़ी को ‘मतंग पर्वत’ माना जाता है। इसी पर्वत पर मतंग ऋषि का आश्रम था।

13. कोडीकरई: - हनुमान और सुग्रीव से मिलने के बाद श्रीराम ने अपनी सेना का गठन किया और लंका की ओर चल पड़े। मलय पर्वत, चंदन वन, अनेक नदियों, झरनों तथा वन-वाटिकाओं को पार करके राम और उनकी सेना ने समुद्र की ओर प्रस्थान किया। श्रीराम ने पहले अपनी सेना को कोडीकरई में एकत्रित किया।

तमिलनाडु की एक लंबी तटरेखा है, जो लगभग 1,000 किमी तक विस्‍तारित है। कोडीकरई समुद्र तट वेलांकनी के दक्षिण में स्थित है, जो पूर्व में बंगाल की खाड़ी और दक्षिण में पाल्‍क स्‍ट्रेट से घिरा हुआ है।

लेकिन राम की सेना ने उस स्थान के सर्वेक्षण के बाद जाना कि यहां से समुद्र को पार नहीं किया जा सकता और यह स्थान पुल बनाने के लिए उचित भी नहीं है, तब श्रीराम की सेना ने रामेश्वरम की ओर कूच किया।

14.रामेश्‍वरम: - रामेश्‍वरम समुद्र तट एक शांत समुद्र तट है और यहां का छिछला पानी तैरने और सन बेदिंग के लिए आदर्श है। रामेश्‍वरम प्रसिद्ध हिन्दू तीर्थ केंद्र है। महाकाव्‍य रामायण के अनुसार भगवान श्रीराम ने लंका पर चढ़ाई करने के पहले यहां भगवान शिव की पूजा की थी। रामेश्वरम का शिवलिंग श्रीराम द्वारा स्थापित शिवलिंग है।

15.धनुषकोडी: : - वाल्मीकि के अनुसार तीन दिन की खोजबीन के बाद श्रीराम ने रामेश्वरम के आगे समुद्र में वह स्थान ढूंढ़ निकाला, जहां से आसानी से श्रीलंका पहुंचा जा सकता हो। उन्होंने नल और नील की मदद से उक्त स्थान से लंका तक का पुनर्निर्माण करने का फैसला लिया।

छेदुकराई तथा रामेश्वरम के इर्द-गिर्द इस घटना से संबंधित अनेक स्मृतिचिह्न अभी भी मौजूद हैं। नाविक रामेश्वरम में धनुषकोडी नामक स्थान से यात्रियों को रामसेतु के अवशेषों को दिखाने ले जाते हैं।

धनुषकोडी भारत के तमिलनाडु राज्‍य के पूर्वी तट पर रामेश्वरम द्वीप के दक्षिणी किनारे पर स्थित एक गांव है। धनुषकोडी पंबन के दक्षिण-पूर्व में स्थित है। धनुषकोडी श्रीलंका में तलैमन्‍नार से करीब 18 मील पश्‍चिम में है।

इसका नाम धनुषकोडी इसलिए है कि यहां से श्रीलंका तक वानर सेना के माध्यम से नल और नील ने जो पुल (रामसेतु) बनाया था उसका आकार मार्ग धनुष के समान ही है। इन पूरे इलाकों को मन्नार समुद्री क्षेत्र के अंतर्गत माना जाता है। धनुषकोडी ही भारत और श्रीलंका के बीच एकमात्र स्‍थलीय सीमा है, जहां समुद्र नदी की गहराई जितना है जिसमें कहीं-कहीं भूमि नजर आती है।

दरअसल, यहां एक पुल डूबा पड़ा है। 1860 में इसकी स्पष्ट पहचान हुई और इसे हटाने के कई प्रयास किए गए। अंग्रेज इसे एडम ब्रिज कहने लगे तो स्थानीय लोगों में भी यह नाम प्रचलित हो गया। अंग्रेजों ने कभी इस पुल को क्षतिग्रस्त नहीं किया लेकिन आजाद भारत में पहले रेल ट्रैक निर्माण के चक्कर में बाद में बंदरगाह बनाने के चलते इस पुल को क्षतिग्रस्त किया गया।

30मील लंबा और सवा मील चौड़ा यह रामसेतु 5 से 30 फुट तक पानी में डूबा है। श्रीलंका सरकार इस डूबे हुए पुल (पम्बन से मन्नार) के ऊपर भू-मार्ग का निर्माण कराना चाहती है जबकि भारत सरकार नौवहन हेतु उसे तोड़ना चाहती है। इस कार्य को भारत सरकार ने सेतुसमुद्रम प्रोजेक्ट का नाम दिया है। श्रीलंका के ऊर्जा मंत्री श्रीजयसूर्या ने इस डूबे हुए रामसेतु पर भारत और श्रीलंका के बीच भू-मार्ग का निर्माण कराने का प्रस्ताव रखा था।

16.’नुवारा एलिया’ पर्वत श्रृंखला: --वाल्मिकी रामायण अनुसार श्रीलंका के मध्य में रावण का महल था। ‘नुवारा एलिया’ पहाड़ियों से लगभग 90 किलोमीटर दूर बांद्रवेला की तरफ मध्य लंका की ऊंची पहाड़ियों के बीचोबीच सुरंगों तथा गुफाओं के भंवरजाल मिलते हैं। यहां ऐसे कई पुरातात्विक अवशेष मिलते हैं जिनकी कार्बन डेटिंग से इनका काल निकाला गया है।

श्रीलंका में नुआरा एलिया पहाड़ियों के आसपास स्थित रावण फॉल, रावण गुफाएं, अशोक वाटिका, खंडहर हो चुके विभीषण के महल आदि की पुरातात्विक जांच से इनके रामायण काल के होने की पुष्टि होती है। आजकल भी इन स्थानों की भौगोलिक विशेषताएं, जीव, वनस्पति तथा स्मारक आदि बिलकुल वैसे ही हैं जैसे कि रामायण में वर्णित किए गए हैं।

श्रीवाल्मीकि ने रामायण की संरचना श्रीराम के राज्याभिषेक के बाद वर्ष 5075 ईपू के आसपास की होगी (1/4/1 -2)। श्रुति स्मृति की प्रथा के माध्यम से पीढ़ी-दर-पीढ़ी परिचलित रहने के बाद वर्ष 1000 ईपू के आसपास इसको लिखित रूप दिया गया होगा। इस निष्कर्ष के बहुत से प्रमाण मिलते हैं।

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