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Saturday, 18 September 2021

स्वावलंबन का पाठ

जय श्री राम! कैसे हो आप? आपके लिए गुरुनानक देव के बचपन की एक कथा लेकर आयी हु। ध्यान से पढ़ना और सबके साथ शेयर करना।



यह बात गुरुनानकजी की है जब वे सिर्फ ६ साल के एक बालक थे। बालक नानक अपने मित्रों के साथ नदी किनारे खेल रहे थे। शाम हो रही थी और ठण्ड भी बढ़ने लगी थी तो उनकी बड़ी बहन बेबे नानकीजी उन्हें लेने नदी किनारे आयी। बेबे नानकीजीने अपने साथ गुरुनानकजी के लिए कम्बल लाया था। बेबे नानकीजी उनके पास आयी और बोली, "नानक शाम हो रही है घर चलो। और अगर अभी नहीं आ रहे हो तो ये कम्बल अपने पास रखलो।" 

कम्बल लेते हुए नानकजी बोले, "बेबे मैं आपके साथ ही चल रहा हु।" और अपने मित्रों से उन्होंने विदा ली और घर की तरफ बेबे नानकीजी का हाथ थाम्बे चल पड़े। 

रास्ते में उन्हें एक भिखारी दिखा जो ठण्ड से काँप रहा था। नानकजी ने उसे ध्यान से देखा। वह भिखारी शारीरिक तौर पर बिलकुल अच्छा था, कहिसेभी अपाहिज नहीं था। नानकजी इनके पास गए और कम्बल देते हुए बोले, "बाबा भगवान ने आपको अच्छे हाथ पैर दिए है, कुछ काम करिये और अपने स्वाभिमान के साथ रहिये। अपने कष्ट से कमाई रोटी मीठी लगती है। दूसरों ने दान दी हुई रोटी में इतनी मिठास कहा?"

ये बात उस भिखारी के मन में घर कर गयी। अगले दिन सुबह उसने स्वावलम्बी होने का ठाना और गांव में काम ढूंढने निकल पड़ा। किसी के खेत में उसे काम भी मिल गया। गुरु के शब्दों ने उसकी जिंदगी बदल दी। उसका परिवार उस दिन के बाद कभी भूखा नहीं सोया। 

कहानी का सार ये की बस काम करने की इच्छा चाहिए ईश्वर अपने आप रास्ते बना देता है। स्वावलम्बन की जिंदगी सुखी जिंदगी। 

जैसे गुरु नानक जी उस भिखारी को मिले और मार्ग दिखाया, वैसे ही सबको मार्ग दिखाते है। हमें बस देखने की जरुरत है। 

कहानी यहाँ तक पढ़ने के लिए धन्यवाद! कृपया इस कहानी को ज्यादा से ज्यादा शेयर करें। 


Friday, 16 July 2021

विनम्र बुनकर

जय श्री राम। आपके लिए एक विनम्र बुनकर की कहानी लायी हूँ। कृपया इस कहानी को अपने परिवार और मित्रों के साथ अवश्य पूरा पढ़ें। 


यह कहानी प्रकासम नगर की है जहाँ कई वर्ष पूर्व एक बुनकर रहता था। उसका नाम शाश्वत था और वह बड़ेही विनम्र स्वभाव का था। 

एक दिन शाश्वत बुनकर के दुकान के सामने से अयान नामक लड़का जा रहा था। अयान थोड़ा बदमाश किस्म का था। अयान ने शाश्वत को परेशान करने की सोची। फिर अयान ने सोचा, "क्यों न एक साड़ी का दाम पूछ लूँ और फिर उस साड़ी की टुकड़े करके और दाम पुछु। "

अयान शाश्वत की दुकान में आया और एक साड़ी ली और उसका दाम पूछा। 

शाश्वत ने कहा, "२००  रूपए। "

अयान ने उस साड़ी को दो  टुकडो में काट दिया और फिर उसका दाम पूछा। 

शाश्वत ने कहा, "१०० रूपए। "

ऐसा अयान ने बहुत बार किया लेकिन तब भी शाश्वत धैर्यपूर्वक जवाब देता रहा। 

ऐसा करते करते एक स्थिति ऐसी आयी की अयान आगे उस साड़ी के टुकड़े न कर सका। तब अयान के समझ आया की अब ये साड़ी उसके काम न आएगी। 

तब शाश्वत ने कहा, "अब तो ये तुम्हारे क्या किसी के भी काम में नहीं सकती।"

तब अयान उस साडी का दाम देने लगा। लेकिन शाश्वत बुनकर ने कहा, "साड़ी का दाम देने से साड़ी की भरपाई नहीं होंगी।"

अयान ने पूछा, "तो फिर साड़ी की भरपाई कैसे होगी?"

शाश्वत ने कहा, "साड़ी की भरपाई तो तब होंगी जब मेरी पत्नी कपास की रुई बनाकर उससे सूत निकालकर मुझे उसे रंगने देंगी। फिर मेरी पत्नी उस रंगीन सूत को बुना जायेगा तब एक साड़ी बनेंगी और फिर एक साड़ी की भरपाई होंगी। साड़ी तो दूसरी जाएंगी लेकिन आपने की हुई गलती नहीं सुधरेंगी और गया हुआ समय वापिस नहीं आएगा

सार यह है की समाज को आगे बढ़ने के लिए अपनी गन्दी आदतों को छोड़ना पड़ेगा। 

कहानी को यहाँ तक पढ़ने के लिए धन्यवाद। कृपया इस कहानी को ज्यादा से ज्यादा शेयर करें, ताकि समाज अपनी गन्दी आदतें छोड़ दे। 

परोपकार

जय श्री राम! आज आपके लिए परोपकार की पराकाष्टा की कहानी लेकर आयी हुं। कृपया कहानी को पूरा पढ़िए। 


घटना गाँव तोरुर की है। वहा एक धनी साहूकार रहता था जिसका नाम नारायण था। 

नारायण ने एक हाथी को पाल रखा था। एक दिन वह हाथी उन्मत हो उठा। उसने अपने मालिक नारायण को उठा के पटक दिया। नारायण ने उसको शांत करने की बहुत कोशिश की लेकिन वह शांत नहीं हुआ। और इस बार हाथी ने उसे पटका और उसकी पीठ में अपने नुकीले दाँत घुसा दिये जिसके कारण वह बेहोश हो गए। 

इतनी हलचल होने के कारण आस पास के लोग भी वहा पहुचे और उन्होंने उस हाथी को शांत कर दिया। फिर सब लोगो ने नारायण को वैद्यशाला ले गए ताकि नारायण का सहीसे उपचार हो सके। 

नारायण की जांच करने के बाद वैद्यजी बोले, "नारायण के पीठ का घाव बहुत गहरा है। उसे सिर्फ टाकेँ देकर नहीं भरा जा सकता। इसके लिए हमें एक इंसान का डेढ़ पौन मांस लगेंगा।"  

नारायण के परिचित, घरवाले कोई भी इस काम के लिए तैयार नहीं थे। लेकिन जब यह बात एक वैद्य, जो की बहुत अच्छे संस्कारों वाला था, उसे पता चली तो वह इस काम के लिए खुद होकर सामने आया। 

फिर नारायण को टाके लगे और उसके घाव का इलाज हुआ। तब कहा जा के उसकी जान बची। 

असल में मनुष्यता का दूसरा नाम ही परोपकार है। अगर हम अपने तन, मन, धन में से थोडासा देश को ठीक करने में लगाए तो, तो हमारे लिए अच्छा होता है। 

कहानी को यहाँ तक पढ़ने के लिए धन्यवाद। कृपया इसे ज्यादा से ज्यादा शेयर करिये। 

Thursday, 27 May 2021

अजनबी क्यों हो जाते हैं ?

जय श्री राम सखियों और सखाओ। आज फिरसे एक दिल को छू लेने वाली कहानी लायी हु, पूरी जरूर पढ़ना। 

Image: Pinterest 

कडापा नगर में एक बच्चा जिसका नाम विजय था अपनी माँ और बहन के साथ रहा करता था। वो बहुत गरीब था। हर रोज मंदिर जाता और भगवान से कुछ देर बाते करता। 

एक दिन विजय रोज की तरह मंदिर गया और हमेशा की तरह भगवान से बाते करने लगा। बात करते करते रोने लगा। उसके नन्हे नन्हे से गाल आँसूओं से भीग चुके थे। मंदिर में आये बहुत लोग उसकी तरफ आकर्षित थे और वह बिल्कुल अनजान अपने भगवान से बातों में लगा हुआ था। पर कोई सामने आकर बात नहीं करता था। 

पर उस दिन एक अजनबी ने उसके साथ बात की, "क्या मांगा भगवान से?"

विजय ने कहा, "मेरे पापा मर गए हैं उनके लिए स्वर्गमेरी माँ रोती रहती है उनके लिए सब्रमेरी बहन माँ से कपडे सामान मांगती है उसके लिए पैसे। "

अजनबी ने फिर पूछा तुम स्कूल जाते हो?” 

विजय ने जवाब दिया, हां जाता हूं।"

अजनबी ने पूछा, किस क्लास में पढ़ते हो ?” 

विजय ने कहा, "नहीं अंकल पढ़ने नहीं जातामां चने बना देती है वह स्कूल के बच्चों को बेचता हूँ । बहुत सारे बच्चे मुझसे चने खरीदते हैंहमारा यही काम धंधा है ।"

तुम्हारा कोई रिश्तेदार” न चाहते हुए भी अजनबी बच्चे से पूछ बैठा ।

विजय सुबकते हुए बोला, "पता नहींमाँ कहती है गरीब का कोई रिश्तेदार नहीं होता। माँ झूठ नहीं बोलती। पर अंकलमुझे लगता है मेरी माँ कभी कभी झूठ बोलती है। जब हम खाना खाते हैं हमें देखती रहती है। जब कहता हूँ माँ तुम भी खाओतो कहती है मैने खा लिया थाउस समय लगता है झूठ बोलती है।"

अजनबी ने आगे पूछा, "बेटा अगर तुम्हारे घर का खर्च मिल जाय तो पढाई करोगे ?"

विजय चिल्लाया, "बिल्कुलु नहीं!"

अजनबी ने सवाल किया, "क्यों बेटा आप क्यों नहीं पढ़ना चाहते हो ?"

विजय रोने लगा  बोला, "पढ़ाई करने वालेगरीबों से नफरत करते हैं अंकल। हमें किसी पढ़े हुए ने कभी नहीं पूछा बस पास से गुजर जाते हैं। मैं हर दिन इसी इस मंदिर में आता हूँकभी किसी ने नहीं पूछा। यहाँ सब आने वाले मेरे पिताजी को जानते थे, मगर हमें कोई नहीं जानता ।

विजय जोर-जोर से रोने लगा अंकल जब बाप मर जाता है तो सब अजनबी क्यों हो जाते हैं ?”

यह सवाल का जवाब उस अजनबी के पास तो नहीं था। अगर आपके पास होगा तो कमेंट जरूर करिये। 

आपके इर्दगिर्द न जाने ऐसे कितने ही विजय होंगे जो अपने हालात से लड़ रहे होंगे आप ऐसे लोगो की यथा संभव मदत करिये। कहानी को यहाँ तक पढ़ने के लिए धन्यवाद। 



चमत्कार

जय श्री राम सखियों और सखाओ। आपके लिए ह्रदय को पिघलाने वाला प्रसंग लेकर आयी हु। कृपया पूरा पढ़ना और चिंतन जरूर करना। 

Image : Patrika 

गुंटूर शहर में मांडवी नामकी एक छोटी लड़की रहा करती थी अपने परिवार के साथ - जिसमे माता पिता और एक बड़ा भाई था। बड़े भाई का नाम पिनाकी था। 

एक दिन मांडवी ने गुल्लक तोड़ दिया और सब सिक्के निकाले और उनको बटोर कर जेब में रख लिया| सारे रुपये लेकर वो घर से पास की केमिस्ट की दुकान पर गयी और दुकानदार से बात करने के लिए आवाज लगा रही थी। पर वो बहोत छोटी थी तो उसे कोई देख नहीं पा रहा था। दुकानदार अपने दोस्त विरुपाक्ष से बात करने में व्यस्त था। विरुपाक्ष विदेश से आया हुआ था। 

कई बार आवाज लगाने के बावजूद भी कुछ नहीं हुआ तो मांडवी ने जेब से एक सिक्का निकाला और उसे काउंटर पर फेका। सिक्के की आवाज से दुकानदार का ध्यान उसकी और गया और फिर उसने पूछा, "बेटा आपको क्या चाहिए ?"

फिर मांडवी ने जेब से सब सिक्के निकाल कर अपनी छोटी सी हथेली पर रखे और बोली “अंकल मुझे चमत्कार चाहिए!

दुकानदार समझ नहीं पाया उसने फिर से पूछावो फिर से बोली मुझे चमत्कार चाहिए.

दुकानदार हैरान होकर बोला – “बेटा यहाँ चमत्कार नहीं मिलता!

वो फिर बोली अगर दवाई मिलती है तो चमत्कार भी आपके यहाँ ही मिलेगा|”

दुकानदार बोला – “बेटा आप से यह किसने कहा?”

फिर मांडवी ने विस्तार से कहना शुरू किया, "मेरा नाम मांडवी है। मेरे भैया है पिनाकी उनको ट्यूमर हो गया है। उनके इलाज में बहोत पैसे लग रहे है समय पर उनका ऑपरेशन होना जरुरी है तभी वो बच सकते है। पर जो खर्च ऑपरेशन का डॉक्टर बता रहे है उतने पैसे नहीं है मेरे पापा के पास इसीलिए वो मम्मी को बता रहे थे की कोई चमत्कार ही उसे बचा सकता है। मै उसी चमत्कार को खरीदना चाहती हु जो मेरे भी पिनाकी को बचा ले।"

उसकी ये सारी बाते विरुपाक्ष भी बड़े ध्यान से सुन रहा था। फिर विरुपाक्ष ने मांडवी से पूछा, "बेटा बताओ कितने रुपये है तुम्हारे पास ?"

मांडवी ने अपनी मुट्टी से सब रुपये उसके हाथो में रख दिए। वो कुछ ५३ रूपए थे। विरुपाक्ष ने सारे रुपये अपने पास रख लिए और कहा, "मांडवी बेटे आपने चमत्कार खरीद लिया है चलो अब मुझे तुम्हारे भाई पिनाकी के पास ले चलो। "

मांडवी विरुपाक्ष को अपने घर ले गयी और अपने मम्मी पापा को बताया, "ये अंकल चमत्कार से पिनाकी भैया को ठीक करेंगे।"

फिर विरुपाक्ष ने बताया की वो एक न्यूरो सर्जन है और विदेश में काम करता है। अभी भारत छुट्टिया मनाने आया है। उसने पिनाकी की मेडिकल फाइल देखी और उसके ट्यूमर का ऑपरेशन करने के हिसाब से बाकि डॉक्टर्स से बात कर के ऑपरेशन का दिन तय कर दिया। 

निहित दिन ऑपरेशन हुआ जो विरुपाक्ष ने केवल ५३ रुपये में किया। और पिनाकी की जान बच गयी। 

मांडवी सरल भाव से चमत्कार ढूंढने निकली थी जो उसे विरुपाक्ष के रूप में मिला। सरल  भावना आपको किसी न किसी रूप में ईश्वर का साक्षात्कार जरूर कराती है। जैसे विरुपाक्ष ने मांडवी की सहायता की वैसे ही आप भी किसी की न किसी की सहायता हमेशा करे। आपके अनुभव जरूर कमेंट करे। यहाँ तक पढ़ने के लिए धन्यवाद। 


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जुर्माना और सज़ा

जय श्री राम सखियों और सखाओ। आज इंडोनेशिया की एक कहानी आपके लिए लेकर आयी हु। पूरी कहानी जरूर पढ़ना। 

 

Image: Fix the Court



इंडोनेशिया के जज मरज़ुकी, एक बूढ़ी महिला के चोरी के मामले की सुनवाई कर रहे थे। 
बूढी महिला से पूछा गया की उसने चोरी क्यों की ?
बूढ़ी महिला ने अपना गुनाह कबूल कर लिया था कि उसने एक बाग़ से कुछ मांड चुराई थी। फिर उसने गिडगडाते हुए जज से प्रार्थना की, "जज साहब, मैं बहुत गरीब हूँ, मेरा बेटा बीमार है, मेरा पोता बहुत भूखा था, इसलिए मज़बूरन चोरी कर बैठी। " 
बाग़ का मालिक बोला, "जज साहब, इसे कड़ी सज़ा दो ताकि दूसरों को नसीहत मिले।" 
जज ने सारे पेपर जांच करने के बाद, नज़र ऊपर उठाई और बूढ़ी महिला से कहा, "मुझे बहुत दुःख है, परन्तु मैं कानून से नहीं हट सकता। इसलिए, तुम्हे क़ानून के तहद सज़ा ज़रूर मिलेगी। क़ानून में तुम्हारे इस अपराध की सज़ा है एक सौ रुपये जुर्माना और ये जुर्माना ना देने पर ढाई साल की जेल।" 
बूढ़ी महिला रोने लगी क्योंकि वो जुर्माना नहीं भर सकती थी। और वह जेल भी नहीं जा सकती थी क्यों की घरमे उसके बीमार बेटे की सेवा के लिए कोई नहीं था और छोटे पोते का खयाल उसे और दुखी कर रहा था। 
तब जज साहब ने अपने सर से अपनी टोपी उतरी और उसमें 11 रूपये डाल कर बोले, " सच्चे न्याय के लिए, जो लोग इस अदालत में हाज़िर हैं वो हर एक साढ़े पांच रुपये जुर्माने के तौर पर दें। शहर के नागरिक के रूप में सबका जुर्म है कि क्यों एक मासूम बच्चा भूखा रहा और इस बूढ़ी गरीब महिला को चोरी तक करने पर मज़बूर होना पड़ा।" कोर्ट के रजिस्ट्रार को हिदायत है कि वो सब उपस्थित लोगों से ये जुर्माना ले लें। 
सबके दिए गए रुपये मिला कर 350 रुपये की रकम इकठ्ठी हुई जिससे जुर्माने की रकम काटने के बाद, शेष बचे 250 रुपये उस बूढ़ी महिला को दे दिए गए ताकि वो अपने बीमार बेटे का इलाज करा सके और अपने पोते का खयाल रख सके। 
वैसे इस कहानी में जो सार छुपा है उसे अगर हर देश की सरकार ध्यान में रखे तो कोई भी बच्चा भूखा नहीं रहेगा और कोई चोरी नहीं करेगा। उस हिसाब से कानून बनाना हर सरकार का दायित्व है। 
खैर सरकार अपना काम करे या न करे उन जज साहब ने कोर्ट में मौजूद सबसे जुर्माना लिया इसका तात्पर्य यह है की हम जिस समाज में रहते है उस समाज को अच्छा बनाये रखना ये सबकी जिम्मेदारी है और समाज में रहने वाला कोई भी व्यक्ति भूखा न रहे इसके लिए हमने हमारे आसपास के गरीब भूखे लोगो को जरुरत की चीजे और खाना देते रहना चाहिए। 
भलाई करने के लिए सरकार कौनसी है ये थोड़ी न देखा जाता है बस भलाई करते वक्त ये  ध्यान में रखना है की सब तरफ सांवरिया सरकार का राज है। 
अगर आपको भी यही लगता है की हमने एक दूसरे की सहायता करते रहना चाहिए तो फिर एक बार कमेंट में  किसीकी भी सहायता की हो तो जरुर अपना अनुभव लिखिए ताकि पढ़ने वाले सभी सहायता करने के लिए प्रेरित हो और इसी ब्लॉग में आपकी भी कहानी आपको फीचर करते हुए लिखूंगी। पढ़ने के लिए धन्यवाद। 


ठाकुरजी के नखरे

जय श्री कृष्ण सखियों और सखाओ। आज भक्तिरस से भरी एक घटना आपको बता रही हु। कृपया अंततक पढ़े और भक्तिरस का अनुभव ले। 

संत गोपालाचार्य चंचल शिखामणि कृष्ण को बाल-भाव से भजते थे। जब बाबा पाठ करते तो ये महाशय हारमोनियम उठाकर उसमे सा रे गा मा...... का राग छेड़ देते। जब भोग लगाते तो ये रसोई घर में जाकर खूब खटर पटर करते।  जब जब बाबा कोई भी काम करे ये पहले ही शुरू हो जाते। और बाबा को कहना पडता थोडा हल्ला कम करो 

जैसे कोई छोटा बच्चा होता है, पहले जब वह बोलना सिखता है तो हम उसे सीखते है लल्ला मईया बोल , बाबा बोल, और एक दिन जब वह बोलने लगता है तो हम कितना खुश होते है। और फिर इतना बोलता है कि उसी मईया को लाठी लेकर कहना पडता है घर में मेहमान है थोडी देर चुप रह। हम बच्चे से पूंछते है क्या खाओगे ? फिर हम कितने प्यार से एक एक कौर उसे खिलाते है। बस इसी तरह ठाकुरजी भी है, हम सामने रख तो देते है पर बच्चे की भांति नहीं खिलाते, वरना तो खाने में भी बड़े नखरे है इनके। 

सबका मतलब यह की गोपालाचार्य कृष्ण को अपने घर के बालक की तरह बतियाते थे, उन्हें भोजन करते थे और जो भी कार्य करते तब कृष्णजी को अपने साथ लेकर काम करते थे। और इसीलिए भगवान भी उनके साथ भगवान की तरह न रहते हुए उनके घर के बालक की तरह ही रहते थे - बाबा जो भी करे वे हर काम में हाथ बटाते थे। 

एक दिन गोपालाचार्य ने ठाकुरजी के लिए खीर बनायीं और प्रेम से उनको भोग लगाने लगे, अब ठाकुर जी ठहरे चंचल शिरोमणि, खाते ही बोल पड़े, "बाबा!  इस खीर में शक्कर कम है।" बाबा ने झट थोड़ी सी शक्कर डाल दी।  फिर ठाकुर जी ने खायी अब बोले, "बाबा! बहुत मीठी है।" बाबा ने फिर थोडा सा दूध डाल दिया। 

फिर ठाकुरजी ने खायी फिर बोले, "बाबा! अब फिर शक्कर कम है। " इस तरह जब दो तीन बार किया तो बाबा समझ गए, खीर तो ठीक बनी है ये ही नखरे दिखा रहे है, तुरंत शक्कर और दूध का डिब्बा उठाया, और ठाकुरजी के सामने रखकर बोले, "लाला! लेलो अब अगर मीठी लगे, तो स्वयं दूध डाल लेना और फीकी लगे तो शक्कर डाल लेना। "

कहने का अभिप्राय, हम उनसे बोलते नहीं इसलिए वे हमसे बोलते नहीं, यदि उनसे बात करना शुरू करेंगे तो आप स्वयं देखिये वे बोलने लग जायेगे। और एक दिन ऐसा आएगा कि संत की तरह हमें भी कहना पड़ेगा थोडा हल्ला कम करो। 

भक्ति तो समर्पण की पराकाष्टा है। और सेवा भक्ति का अन्य रूप है। पुरे समर्पित भाव से ठाकुरजी की सेवा आपको निश्चित ही आनंद देगी। 

अगर आपने भी कभी चितचोर ठाकुरजी के संग बाते की हो और आपको उनके होने का एहसास हुआ हो तो एक बार कमेंट में जयकारा लगा दीजिये और इस ब्लॉग को ज्यादा से ज्यादा शेयर करिये। 


गुरु महिमा

जय श्री राम सखियों और सखाओ। आज आपके लिए गुरु की महिमा का बखान करते कुछ वाक्य ऐसे ही ले आयी हु। अंततक जरूर पढ़ना। 

Image : piousmantra 

 

🔹गुरू एक तेज हे जिनके आते ही सारे सन्शय के अंधकार खतम हो  जाते हे।

🔹गुरू वो मृदंग हे जिसके बजते ही अनाहद नाद सुनने शुरू हो जाते हे। 

🔹गुरू वो ज्ञान हे जिसके मिलते ही पांचो शरीर एक हो जाते हे।

🔹गुरू वो दीक्षा हे जो सही मायने मे मिलती हे तो पार हो जाते हे।

🔹गुरू वो नदी हे जो निरंतर हमारे प्राण से बहती हे।

🔹गुरू वो सत चित आनंद हे जो हमे हमारी पहचान देता हे।

🔹गुरू वो बासुरी हे जिसके बजते ही अंग अंग थीरक ने लगता हे।

🔹गुरू वो अमृत हे जिसे पीके कोई कभी प्यासा नही।

🔹गुरू वो मृदन्ग हे जिसे बजाते ही सोहम नाद की झलक मिलती हे।

🔹गुरू वो कृपा हि हे जो सिर्फ कुछ सद शिष्यो को विशेष रूप मे मिलती हे और कुछ पाकर भी समझ नही पाते।

🔹गुरू वो खजाना हे जो अनमोल हे।

🔹गुरू वो समाधि हे जो चिरकाल तक रहती हे।

🔹गुरू वो प्रसाद हे जिसके भाग्य मे हो उसे कभी कुछ मांगने की ज़रूरत नही।

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गुरु महिमा को यहां तक पढ़ने के लिए धन्यवाद अगर आपको भी गुरु कृपा मिली हो तो कृपया एक बार कमेंट में गुरु के नाम का जयकारा अवश्य करें। आपका जयकारा मुझे प्रेरणा देगा और ऐसे ही सुविचार आपके लिए लाने का। 


Thursday, 20 May 2021

लड्डूगोपाल की लीला

जय श्री कृष्ण सखियों और सखाओ। एक भक्तिरस भरी कहानी आपके लिए फिरसे लेकर उपस्थित हु। कृपया मन में लड्डूगोपालजी का ध्यान करते हुए इसे पढ़िए। 

Image: Bhagavatam-katha


चित्तूर नामक नगर में राजीवलोचन नामका एक स्वर्णकार था। वह लड्डूगोपाल का भक्त था और उनकी कृपा से उसका व्यापार बहोत तरक्की कर गया था। सोने के किसी भी तरह के गहने हो उसकी दुकान पर बनकर मिल जाते थे। कई अन्य स्वर्ण कारीगरों को भी उसने रोजगार दे रखा था। दूर दूर से लोग उस चित्तूर नगर में केवल राजीवलोचन की दुकान से गहने लेने और बनवाने आते थे। इतना बड़ा कारोबार होने के बाद भी राजीवलोचन लड्डूगोपाल  की भक्ति और पूजा अर्चना से कभी चूका नहीं। 

राजीवलोचन एक रामभद्र नामक मित्र था जो एक दिन उसे मिलने उसकी दुकान पर आया था। रामभद्र सपरिवार  तीर्थयात्रा कर लौटा था। वह अपने साथ प्रसाद और लड्डूगोपाल की एक बड़ी मनमोहक मूर्ति लेकर आया था।  उस समय राजीवलोचन एक हिरे जड़ित सोने का हार अच्छेसे देख रहा था। रामभद्र के आते ही राजीवलोचन ने उसकी आओभगत की और उसका ध्यान रामभद्र के साथ आये लड्डूगोपाल पर गया। 

राजीवलोचन ने तुरंत अपने हाथ का हिरेजड़ा हार उन लड्डूगोपाल को पहना दिया और कहा, "देखो तो सही इस हार की शोभा लड्डू गोपाल के गले में पढ़ने से कितनी बढ़ गई है।" राजीवलोचन और रामभद्र बाते करने लगे और बातों बातों में हार समेत रामभद्र उन लड्डूगोपाल को लेकर चल दिया। वह टैक्सी करके अपने घर के लिए निकल गया था। और इधर राजीवलोचन अपने अन्य ग्राहकों को देखने में व्यस्त हो गया था। 

रामभद्र जिस टैक्सी से घर के लिए निकला था उसी टैक्सी में वह उन लड्डूगोपाल को भूल गया। वह टैक्सी ड्राइवर जिसका नाम जनार्दन था वह कोकानड़ा नगर में अपनी पत्नी वैदेही के साथ रहता था। रामभद्र को उसके घर छोड़ वह कोकानड़ा स्थित अपने घर की तरफ निकल पड़ा। 

जनार्दन जब अपने घर पोहोचा तब उसने देखा की टैक्सी की पिछली सीट पर लड्डूगोपालजी विराजमान है। वह थोड़ा हक्का बक्का रह गया और सोचने लगा की ये लड्डूगोपाल किसके है? उसने सारा सामान उतारकर घरमे रखा और पत्नी वैदेही को लड्डूगोपाल को लाने के लिए कहा। 

वैदेही घर के बाहर आयी और उसने टैक्सी खोलकर जब देखा तो निःसंतान वैदेही के मन से ममता का झरना फुट पड़ा और उसने उन लड्डूगोपाल को अपने ह्रदय से लगा लिया मानो वो उसका छोटा सा शिशु हो। और गोद में उठाकर वह अपने घर के अंदर ले गई। और जनार्दन से कहा, "आप नहीं जानते कि आज आपने मेरे लिए कितना अमूल्य रत्न लाया है।" और वह झठ से अंदर गयी और उन लड्डूगोपालजी संग बाते करने लगी। 

बाते करते करते वैदेही ने अपने छोटेसे  घर में लड्डूगोपालजी के लिए अच्छी जगह बनाकर उन्हें विराजमान कर दिया। और फिर उनसे कहा, "लाला मेरे घर इतनी दूर से आये हो तनिक विश्राम करो मैं आपके लिए घी का दूध ले आती हु। पीकर सो जाना। "

इधर चित्तूर नगर में हार और लड्डूगोपालजी गायब हो जाने से राजीवलोचन और रामभद्र दोनों परेशान हो गए थे। आखिर में राजीवलोचन ने मन ही मन कहा, "कोई बात नहीं। यह मेरी भक्ति की परीक्षा है। अगर मेरी श्रद्धा सच्ची है तो लड्डूगोपालजी के अंग लगा वह हार वे हमेशा पहने रखेंगे।"

उधर कोकानड़ा नगर में जनार्दन और वैदेही दिन-रात लड्डूगोपालजी की सेवा करने लगे जैसे मनो वो उनके ही पुत्र हो। लड्डूगोपालजी की कृपा हुई और उनके घर एक बहुत ही सुंदर बेटी ने जन्म लिया जिसका नाम उन्होंने ललिता रखा। ललिता के जन्म का सारा श्रेय वे लड्डूगोपालजी को ही देते रहे। 

एक दिन राजीवलोचन अपने व्यापार के सिलसिले में कोकानड़ा नगर आया। पर मौसम ख़राब होने की वजह से वह एक जगह रुक गया। काफी देर बाद जब थोड़ा मौसम ठीक हुआ तो उसने टैक्सी लेने की सोची। तभी जनार्दन उसके पास अपनी टैक्सी लेकर पहुचा। जैसे ही राजीवलोचन जनार्दन की टैक्सी में बैठा और दोनों कुछ दूर आगे गए फिरसे मौसम ख़राब हुआ और धुआँधार बारिश हो गयी। जनार्दन ने राजीवलोचन से पूछा, "साहब आगे सारे रास्ते बंद है। यहाँ से नजदीक मेरा घर है। आप चाहो तो कुछ देर मेरे घर रुक जाइये फिर मौसम साफ होने के बाद मै आपको आपकी मंजिल तक पहुंचा दूंगा।"

राजीवलोचन ने हां कहा और दोनों जनार्दन के घर गए क्यों की उसके पास कोई और चारा नहीं था। 

घर पर जनार्दन ने वैदेही को राजीवलोचन के लिए खाना बनाने के लिए कहा। जनार्दन के छोटे से घर में मन को प्रसन्न करने वाली इत्र की खुशबु आ रही थी। और वैदेही के हाथ का भोजन मानो अमृत से भरा हो। राजीवलोचन का ध्यान बार-बार उस दिशा की तरफ जा रहा था, जहां पर लड्डूगोपालजी विराजमान थे। वहां से उसको एक अजीब तरह का प्रकाश नजर आ रहा था। आखिर में जिज्ञासावश राजीवलोचन ने कहा, "जनार्दन तुम्हे ऐतराज न हो तो क्या मैं जान सकता हु उस दिशा में क्या है? मेरा ध्यान बार बार उधर जा रहा है। "

जनार्दन ने कहा, "अरे क्यों नहीं साहब। वह तो हमारे परिवार के सबसे महत्वपूर्ण सदस्य की जगह है। आइये मैं आपको उनसे मिलवाता हु। "

जनार्दन राजीवलोचन को लड्डूगोपालजी के पास ले गया। उनको देख राजीवलोचन की आखे खुली की खुली रह गयी। क्यों की अभीभी उनके गले में वो हार जैसा की वैसा था जो राजीवलोचन ने पहनाया था। जनार्दन और वैदेही ने सारी बात राजीवलोचन को बताई। 

राजीवलोचन ने पूछा, "क्या तुम जानते हो कि जो हार लड्डूगोपाल जी के गले में पड़ा है उसकी कीमत क्या है?"

वैदेही ने जवाब दिया, "जो चीज हमारे लड्डू गोपाल जी के अंग लग गई हम उसका मूल्य नहीं जानना चाहते और हमारे लाला के सामने किसी चीज किसी हार का कोई मोल नहीं है। "

यह सुन राजीवलोचन के मन में समाधान की भावना जाग उठी और उसने मन ही मन कहा, "अच्छा है मेरा हार लड्डूगोपाल जी ने अपने अंग लगाया हुआ है।"

मौसम काफी ख़राब होने की वजह से राजीवलोचन को पूरी रात जनार्दन के घर रुकना पड़ा। अगले दिन जनार्दन ने उसे उसकी मंजिल तक पहुंचा दिया। वह गाड़ी से उतारकर किराया देकर जा रहा था तभी जनार्दन ने आवाज लगाई, "साहब आपका सामान मेरी गाड़ी में रह गया है, तनिक रुकिए मैं ला देता हु। "

राजीवलोचन परेशान हो गया क्यों की उसने उसका बैग जिसमे उसके व्यापार से जुड़े कागजात थे  वह तो ले लिया था। फिर क्या रह गया था ? जनार्दन ने एक बैग लाकर दिया और कहा, "साहब ये बैग आपका ही है।"

राजीवलोचन ने बैग खोल कर देखा तो उसमे बहोत सरे पैसे थे। उसने गिने तो वह हक्का बक्का रह गया क्युकी वे उतने ही थे जितने उस हार की कीमत। वह रोने लगा तो जनार्दन ने पूछा, "साहब क्या हुआ?"

राजीवलोचन ने बताया कैसे वो हार लड्डुगोपलाजी के गले में आया और आखिर में कहा, "जब तक मैंने निश्छल भाव से ठाकुर जी को वह हार धारण करवाया हुआ था तब तक उन्होंने पहने रखा। मैंने उनको पैसों का सुनाया तो उन्होंने मेरा अभिमान तोड़ने के लिए पैसे मुझे दे दिए हैं।"

यह सुन जनार्दन भी आश्चर्यचकित हो गया। 

लड्डूगोपाल की लीला वो ही जाने, तीर्थयात्रा से किसके साथ आये, किसके हाथो सजे और किसके यहाँ विराजमान हुए ये सब उनकी लीला है। बस जबतक आपके भाव शुद्ध तबतक आपसे सेवा करवाते रहेंगे। अगर आपके मन में जरा भी भक्ति भाव जगा हो तो कृपया एकबार लड्डूगोपालजी का जयकारा कमेंट कर दीजिये और इस ब्लॉग को शेयर करिये। धन्यवाद। 

मूर्तिपूजा से जुडी भावना

जय श्री कृष्ण सखियों और सखाओ। आज मूर्तिपूजा से जुडी एक कहानी आपके लिए लायी हु। इसे अंततक पढ़ना जरूर। 

Image: aajtak 

अनंतपुर नामके नगर में एक कमलनाथ नाम का एक व्यक्ति रहता था। वह व्यापर और सामजिक दोनों ही क्षेत्रों में बड़ा निपुण था पर हमेशा परेशान रहता था। अपने मित्रो से अपनी परेशानी बतलाता था पर उसके परेशानी की वजह कुछ खास नहीं रहती थी। 

एक दिन ऐसे ही वह अपने मित्र के साथ परेशानी क्यों है इसकी चर्चा कर रहा था तो उसके मित्र ने उसे सलाह दी कि कृष्ण भगवान की पूजा शुरू कर दो। बस फिर क्या था वह अपने घर एक सुन्दर सी कृष्ण की मूर्ति ले आया। और नियम से हर रोज पूजा करने लगा। 

जैसे उसके परेशानी का कोई कारण नहीं था वैसे ही उसकी पूजा में भी कोई रस नहीं था। इस वजह से वह कभी अपनी अकारण परेशानी से मुक्त न हो पाया। 

फिर ऐसे ही किसी और दोस्त से चर्चा करता और समाधान ढूंढने की कोशिश करता। किसी ने कहा हनुमानजी की पूजा करो तो वह हनुमानजी की मूर्ति घर ले आया और कृष्ण जी की मूर्ति को थोड़ा बाजु में हटा कर हनुमानजी को रख दिया। ऐसे करते करते उसके पूजाघर में सभी देवी देवता आगये पर मन कि परेशानी उसकी जरा दूर नहीं हुई। आखिर में किसी के कहने पर वह माताजी की मूर्ति लेकर आया और उसे भी वही रख कर रोज पूजा करने लगा।

ऐसे करते करते कई दिन बित गए और एक दिन उसके मनमे ख़याल आया, 'अरे मैंने तो धुप बत्ती माताजी के लिए लगायी है। पूजाघरमे रखे बाकि देवता भी उसे सूंघ रहे होंगे। मैं एक काम करता हु सबके मुँह बांध देता हु ताकि सिर्फ माताजी को धूपबत्ती का सुगंध मिले। '

जैसे ही वह श्रीकृष्णजी का मुँह बाँधने लगा कृष्ण भगवान ने उसका हाथ पकड़ लिया। वो हैरान रह गया और भगवान से पूछा, "इतने वर्षों से पूजा कर रहा था तब नहीं आए? आज कैसे प्रकट हो गए ?" तभी सारे देवी देवता प्रकट हो गए। 

भगवान श्रीकृष्ण ने समझाते हुए कहा, "आज तक तू एक मूर्ति समझकर मेरी पूजा करता था। किन्तु आज तुम्हें एहसास हुआ कि "कृष्ण साँस ले रहा है! तो बस मैं आ गया।" बाकि देवी देवताओ ने भी कृष्ण जी से सहमति जताई। 

तब कमलनाथ को अपनी गलती का एहसास हुआ और उसने सभी देवी देवताओ से क्षमा मांगी और वचन दिया, "मूर्ति में आप विराजमान है इसी भावना से अब मैं पूजा करुँगा। " 

कमलनाथ की मूर्ति की और देखने कि भावना बदली तो उसकी अकारण परेशानी भी दूर होने लगी और उसे  मन की शांति मिली। इसीतरह जब हम श्रद्धापूर्ण भाव से कोईभी ईश्वर कार्य करते है तो उसके फल बदल जाते है। जो भी कर्म हम जीवन में करते है उनके पीछे का भाव सकरात्मक कर दीजिये और फिर देखिये की आपको कैसे उस कार्य में सफलता प्राप्त होती है। 


यह कहानी आपको पसंद आयी हो तो एक बार आपकी श्रद्धा जिनके भी चरणों में है उनके नाम का जयकारा कमेंट कर दीजिये जिससे मुझे आपके लिए ऐसीही और कहानिया लाने की प्रेरणा मिलती रहे। और इस ब्लॉग को ज्यादा से ज्यादा शेयर करिये। धन्यवाद। 


संकट के पूर्वानुमान और योजना से जीता नेपोलियन

जय श्री राम सखियों और सखाओ। आज इतिहास के एक योद्धा की कहानी लायी हु जिसे पढ़कर आप प्रबंधन का एक नियम सिख सकते है। इस कहानी को पूरा जरूर पढ़े। 

Image: The Guardian 


नेपोलियन की वीरता, बुद्धिमानी और जित के किस्से जगजाहिर है। नेपोलियन उनके साथ दोस्त की तरह व्यवहार करता था और युद्धभूमी में लड़ने के लिए उनको और ताकतवर बनाने के उपाय भी सोचता था। उसके सैनिक इन्ही गुणों के कारण उसका बड़ा आदर करते थे और उसके प्रति निष्ठावान भी थे। कहने का मतलब यह है की किसी भी अधिनायक (लीडर) में केवल बुद्धिमानी और वीरता रहने से कुछ नहीं होता उसे अपने साथियो के साथ मित्रवत व्यवहार करना चाहिए तथा वे लोग ज्यादा से ज्यादा कैसे काम करके लक्ष की प्राप्त कर सके ये भी देखना उसका काम है। तभी उसके साथी उसके लिए निष्ठावान रहेंगे और उसका आदर करेंगे। 

एक दिन नेपोलियन गहरी नींद सोया हुआ था। अचानक उसके सेनापति ने उसको आकर जगाया। और उस सेनापतीने कहा, "दक्षिणी मोर्चे पर हमला हुआ है." 

यह सुनकर नेपोलियन ने कहा, "३४ नंबर के नक्शे को निकालो" 

३४ नंबर के नक़्शे को देखकर नेपोलियन ने कहा, "इसमें बताए गए तरीको के अनुसार काम करो." 

सेनापति चकित हो गया की जिस हमले के बारे में उसे तक नहीं पता उस हमले के बारे में नेपोलियन ने समय के पहले ही उसका उपाय कैसे सोच लिया? सेनापति को अचरज में देखकर नेपोलियन ने कहा, "विचारशील लोग अच्छे से अच्छी आशा रखते है, लेकिन बुरी से बुरी स्तिथि के लिए भी तैयार रहते है। मेरी मन:स्तिथि सदा ऐसी रहती है। इसीलिए वैसी नौबत अगर आए तो मुझे उसके पहले ही उसका उपाय ढूंढने में समय नहीं लगता।" 

सार यह है की बुद्धिमानी इसही में है की अनुकूलताओ के साथ प्रतिकूलताओं को भी ध्यान में रखकर तदनुसार पहले ही योजना बना लेनी चाहिए ताकि जब वो स्तिथि आए तब हम उसे जल्दी से जल्दी उसका सामना कर सके यही सही मायने में अपने लक्ष की प्राप्ति का प्रबंधन है। 


नेपोलियन एक योध्दा था और उत्कृष्ट सरदार भी। इतिहास के पन्नो में ऐसे कई महान योध्दाओ की कहानिया है जो आजके समय में प्रबंधन कैसे करे इसका मार्गदर्शन करती है। यह कहानी अगर आपको पसंद आयी हो तो कृपया कमेंट करे ताकी आपके लिए और ऐसी ही कहानिया लाने की मुझे प्रेरणा मिलती रहेंगी। इसे ज्यादा से ज्यादा शेयर करे। 

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