जय श्री कृष्ण सखियों और सखाओ। एक भक्तिरस भरी कहानी आपके लिए फिरसे लेकर उपस्थित हु। कृपया मन में लड्डूगोपालजी का ध्यान करते हुए इसे पढ़िए।
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चित्तूर नामक नगर में राजीवलोचन नामका एक स्वर्णकार था। वह लड्डूगोपाल का भक्त था और उनकी कृपा से उसका व्यापार बहोत तरक्की कर गया था। सोने के किसी भी तरह के गहने हो उसकी दुकान पर बनकर मिल जाते थे। कई अन्य स्वर्ण कारीगरों को भी उसने रोजगार दे रखा था। दूर दूर से लोग उस चित्तूर नगर में केवल राजीवलोचन की दुकान से गहने लेने और बनवाने आते थे। इतना बड़ा कारोबार होने के बाद भी राजीवलोचन लड्डूगोपाल की भक्ति और पूजा अर्चना से कभी चूका नहीं।
राजीवलोचन एक रामभद्र नामक मित्र था जो एक दिन उसे मिलने उसकी दुकान पर आया था। रामभद्र सपरिवार तीर्थयात्रा कर लौटा था। वह अपने साथ प्रसाद और लड्डूगोपाल की एक बड़ी मनमोहक मूर्ति लेकर आया था। उस समय राजीवलोचन एक हिरे जड़ित सोने का हार अच्छेसे देख रहा था। रामभद्र के आते ही राजीवलोचन ने उसकी आओभगत की और उसका ध्यान रामभद्र के साथ आये लड्डूगोपाल पर गया।
राजीवलोचन ने तुरंत अपने हाथ का हिरेजड़ा हार उन लड्डूगोपाल को पहना दिया और कहा, "देखो तो सही इस हार की शोभा लड्डू गोपाल के गले में पढ़ने से कितनी बढ़ गई है।" राजीवलोचन और रामभद्र बाते करने लगे और बातों बातों में हार समेत रामभद्र उन लड्डूगोपाल को लेकर चल दिया। वह टैक्सी करके अपने घर के लिए निकल गया था। और इधर राजीवलोचन अपने अन्य ग्राहकों को देखने में व्यस्त हो गया था।
रामभद्र जिस टैक्सी से घर के लिए निकला था उसी टैक्सी में वह उन लड्डूगोपाल को भूल गया। वह टैक्सी ड्राइवर जिसका नाम जनार्दन था वह कोकानड़ा नगर में अपनी पत्नी वैदेही के साथ रहता था। रामभद्र को उसके घर छोड़ वह कोकानड़ा स्थित अपने घर की तरफ निकल पड़ा।
जनार्दन जब अपने घर पोहोचा तब उसने देखा की टैक्सी की पिछली सीट पर लड्डूगोपालजी विराजमान है। वह थोड़ा हक्का बक्का रह गया और सोचने लगा की ये लड्डूगोपाल किसके है? उसने सारा सामान उतारकर घरमे रखा और पत्नी वैदेही को लड्डूगोपाल को लाने के लिए कहा।
वैदेही घर के बाहर आयी और उसने टैक्सी खोलकर जब देखा तो निःसंतान वैदेही के मन से ममता का झरना फुट पड़ा और उसने उन लड्डूगोपाल को अपने ह्रदय से लगा लिया मानो वो उसका छोटा सा शिशु हो। और गोद में उठाकर वह अपने घर के अंदर ले गई। और जनार्दन से कहा, "आप नहीं जानते कि आज आपने मेरे लिए कितना अमूल्य रत्न लाया है।" और वह झठ से अंदर गयी और उन लड्डूगोपालजी संग बाते करने लगी।
बाते करते करते वैदेही ने अपने छोटेसे घर में लड्डूगोपालजी के लिए अच्छी जगह बनाकर उन्हें विराजमान कर दिया। और फिर उनसे कहा, "लाला मेरे घर इतनी दूर से आये हो तनिक विश्राम करो मैं आपके लिए घी का दूध ले आती हु। पीकर सो जाना। "
इधर चित्तूर नगर में हार और लड्डूगोपालजी गायब हो जाने से राजीवलोचन और रामभद्र दोनों परेशान हो गए थे। आखिर में राजीवलोचन ने मन ही मन कहा, "कोई बात नहीं। यह मेरी भक्ति की परीक्षा है। अगर मेरी श्रद्धा सच्ची है तो लड्डूगोपालजी के अंग लगा वह हार वे हमेशा पहने रखेंगे।"
उधर कोकानड़ा नगर में जनार्दन और वैदेही दिन-रात लड्डूगोपालजी की सेवा करने लगे जैसे मनो वो उनके ही पुत्र हो। लड्डूगोपालजी की कृपा हुई और उनके घर एक बहुत ही सुंदर बेटी ने जन्म लिया जिसका नाम उन्होंने ललिता रखा। ललिता के जन्म का सारा श्रेय वे लड्डूगोपालजी को ही देते रहे।
एक दिन राजीवलोचन अपने व्यापार के सिलसिले में कोकानड़ा नगर आया। पर मौसम ख़राब होने की वजह से वह एक जगह रुक गया। काफी देर बाद जब थोड़ा मौसम ठीक हुआ तो उसने टैक्सी लेने की सोची। तभी जनार्दन उसके पास अपनी टैक्सी लेकर पहुचा। जैसे ही राजीवलोचन जनार्दन की टैक्सी में बैठा और दोनों कुछ दूर आगे गए फिरसे मौसम ख़राब हुआ और धुआँधार बारिश हो गयी। जनार्दन ने राजीवलोचन से पूछा, "साहब आगे सारे रास्ते बंद है। यहाँ से नजदीक मेरा घर है। आप चाहो तो कुछ देर मेरे घर रुक जाइये फिर मौसम साफ होने के बाद मै आपको आपकी मंजिल तक पहुंचा दूंगा।"
राजीवलोचन ने हां कहा और दोनों जनार्दन के घर गए क्यों की उसके पास कोई और चारा नहीं था।
घर पर जनार्दन ने वैदेही को राजीवलोचन के लिए खाना बनाने के लिए कहा। जनार्दन के छोटे से घर में मन को प्रसन्न करने वाली इत्र की खुशबु आ रही थी। और वैदेही के हाथ का भोजन मानो अमृत से भरा हो। राजीवलोचन का ध्यान बार-बार उस दिशा की तरफ जा रहा था, जहां पर लड्डूगोपालजी विराजमान थे। वहां से उसको एक अजीब तरह का प्रकाश नजर आ रहा था। आखिर में जिज्ञासावश राजीवलोचन ने कहा, "जनार्दन तुम्हे ऐतराज न हो तो क्या मैं जान सकता हु उस दिशा में क्या है? मेरा ध्यान बार बार उधर जा रहा है। "
जनार्दन ने कहा, "अरे क्यों नहीं साहब। वह तो हमारे परिवार के सबसे महत्वपूर्ण सदस्य की जगह है। आइये मैं आपको उनसे मिलवाता हु। "
जनार्दन राजीवलोचन को लड्डूगोपालजी के पास ले गया। उनको देख राजीवलोचन की आखे खुली की खुली रह गयी। क्यों की अभीभी उनके गले में वो हार जैसा की वैसा था जो राजीवलोचन ने पहनाया था। जनार्दन और वैदेही ने सारी बात राजीवलोचन को बताई।
राजीवलोचन ने पूछा, "क्या तुम जानते हो कि जो हार लड्डूगोपाल जी के गले में पड़ा है उसकी कीमत क्या है?"
वैदेही ने जवाब दिया, "जो चीज हमारे लड्डू गोपाल जी के अंग लग गई हम उसका मूल्य नहीं जानना चाहते और हमारे लाला के सामने किसी चीज किसी हार का कोई मोल नहीं है। "
यह सुन राजीवलोचन के मन में समाधान की भावना जाग उठी और उसने मन ही मन कहा, "अच्छा है मेरा हार लड्डूगोपाल जी ने अपने अंग लगाया हुआ है।"
मौसम काफी ख़राब होने की वजह से राजीवलोचन को पूरी रात जनार्दन के घर रुकना पड़ा। अगले दिन जनार्दन ने उसे उसकी मंजिल तक पहुंचा दिया। वह गाड़ी से उतारकर किराया देकर जा रहा था तभी जनार्दन ने आवाज लगाई, "साहब आपका सामान मेरी गाड़ी में रह गया है, तनिक रुकिए मैं ला देता हु। "
राजीवलोचन परेशान हो गया क्यों की उसने उसका बैग जिसमे उसके व्यापार से जुड़े कागजात थे वह तो ले लिया था। फिर क्या रह गया था ? जनार्दन ने एक बैग लाकर दिया और कहा, "साहब ये बैग आपका ही है।"
राजीवलोचन ने बैग खोल कर देखा तो उसमे बहोत सरे पैसे थे। उसने गिने तो वह हक्का बक्का रह गया क्युकी वे उतने ही थे जितने उस हार की कीमत। वह रोने लगा तो जनार्दन ने पूछा, "साहब क्या हुआ?"
राजीवलोचन ने बताया कैसे वो हार लड्डुगोपलाजी के गले में आया और आखिर में कहा, "जब तक मैंने निश्छल भाव से ठाकुर जी को वह हार धारण करवाया हुआ था तब तक उन्होंने पहने रखा। मैंने उनको पैसों का सुनाया तो उन्होंने मेरा अभिमान तोड़ने के लिए पैसे मुझे दे दिए हैं।"
यह सुन जनार्दन भी आश्चर्यचकित हो गया।
लड्डूगोपाल की लीला वो ही जाने, तीर्थयात्रा से किसके साथ आये, किसके हाथो सजे और किसके यहाँ विराजमान हुए ये सब उनकी लीला है। बस जबतक आपके भाव शुद्ध तबतक आपसे सेवा करवाते रहेंगे। अगर आपके मन में जरा भी भक्ति भाव जगा हो तो कृपया एकबार लड्डूगोपालजी का जयकारा कमेंट कर दीजिये और इस ब्लॉग को शेयर करिये। धन्यवाद।