भगवान बलराम
जब कंसने देवकीके छः पुत्रोंका वध कर दिया था। जब शेशनगजी ने देवकीके गर्भ में प्रवेश किया तब योगमायाने उन्हें आकर्षित कर नंदबाबा के घर निवास कर रही वसुदेवजीकी पत्नी रोहिणीजी के गर्भमे पहुंचा दिया। इसीलिए बलरामको संकर्षण भी कहते है। बलवानोमे श्रेष्ठ होने के कारन उन्हें बलभद्र भी कहा जाता है। श्रावण पूर्णिमा यानि रक्षाबंधन के दिन बलरामजीका जन्म गोकुल में हुवा।
श्रीकृष्ण और बलराम परस्पर अभिन्न है। उनकी चरित्र चर्चा भी एक दूसरेसे संयुक्त है। श्रीमद्भागवत में बहोत काम लीलाये ऐसी है जिसमे श्रीकृष्ण के साथ बलदाऊ न हो। गोकुल और बृन्दावनकी सभी लीलाओ में दोनों साथमे रहे है।
एक दिन श्रीकृष्ण और बलराम ग्वालबालोके साथ जब वनमे गौए चराने गए तब प्रलम्बासुर राक्षस ग्वाले के रूपमे कृष्ण आया और उसने मैत्री का प्रस्ताव रखा। श्रीकृष्ण उसे पहचान गए थे उन्होंने उसका मैत्री प्रस्ताव स्वीकार किया। जब प्रलम्बासुरने देखाकि कृष्ण को हराना मुश्किल है तो वह बलरामजी को अपने साथ आकाश मार्गसे ले जाने लगा। बलराम स्वयं शेषनाग के अवतार थे। उन्होंने प्रलम्बासुर के सर पर एक घुसा दे मारा जिससे उसके सर के टुकड़े टुकड़े हो गए और वह निष्प्राण होकर धरती पर गिर पड़ा। प्रलम्बासुर जैसे मूर्तिमान पापिके मृत्युसे देवता प्रसन्न हुए और उन्होंने बलरामजीकी जय जयकार करते हुए उनपर पुष्पवृष्टि की।
कंस की मल्लशालमे मुष्टिक मललका वध बलरामजी ने किया। जरासन्धने जब मथुरापर आक्रमण किया तब केवल श्रीकृष्ण के मना करने पर बलरामने उसका वध नहीं किया। अन्यथा पहलेही युद्ध में जरासंध यमलोक पोहोच जाता।
रुक्मिणी हरण के समय शिशुपाल और रुक्मी अपनी सेनाओ समेत बलरामजीसे पराजित हुए। नैमिष क्षेत्र में इल्वल राक्षस के पुत्र बल्वल ने ऋषियों को त्रस्त कर दिया था। ऋषियोंको उसके भयसे बलरामजीनेही मुक्त किया।
धृतराष्ट्र पुत्र दुर्योधनको बलरामजीने गदा युद्ध का प्रशिक्षण दिया था। केवल मनुष्य का उधार हो और मनुष्य कर्म का सिंद्धांत समझकर अपना सके इसलिए प्रभुकी आज्ञा से बलरामजीने महाभारतके भीषण युद्धमे शस्त्र न उठानेका निर्णय लिया और अग्रज होने के नाते यही आदेश श्रीकृष्ण को भी दिया। इस युद्धके दौरान बलरामजी तटस्त होकर तीर्थयात्रापर निकल गए।
यदुवंशके उपसंहार के पश्चात बलरामजीने समुद्रतट पर तपस्या प्रारम्भ की और अपनी लीला का संवरण किया।
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