भगवान श्रीकृष्ण
भाद्रपद कृष्ण पक्ष अष्टमी की अर्धरात्री में परम भागवत वासुदेव और माता देवकीके माध्यम से कंसके कारागार में चंद्रोदय के साथ ही भगवान श्रीकृष्ण का प्राकट्य हुआ था। उनके जन्म के पूर्व ही वासुदेव - देवकीके छः नवजात शिशु कंस की क्रूरता की भेट चढ़ गए थे। भगवान विष्णु के चतुर्भुज रूपके साक्षात्कार से वासुदेव और देवकी धन्य हो गए। देखते देखते पूर्ण ब्रम्ह एक शिशु में परिवर्तित हो गए। दम्पति की हथकड़ी - बेड़ियाँ खुल गयी कारागार के सभी सैनिक निद्रावश हो गए और कारागार के सभी द्वार अपने आप खुल गए। वसुदेवजी चल पड़े और यमुना पार करके अपने ह्रदय धनको गोकुलमे नन्दभवन छोड़ आये। और वहा नंदबाबा की कन्या को ले आये। ये कन्या योग माया थी। जब कंस ने उसे पटकना चाहा तो वो उसके हाथसे छूटकर आकाशमे अष्टभुजा रूप में प्रकट हुई। योगमाया ने कंस को उसके काल की कही और प्रकट होने की सुचना देकर वह अंतर्धान हो गयी जो आगे चल कर सुभद्रा के नामसे प्रख्यात हुई।
गोकुल की गलियोमे आनंद थिरक उठा और नंदरानी यशोदा की गोद धन्य हो गयी। मोहन की लीलाओको देख कर गोपियोकी प्रसन्नता ठिकाना नहीं रहता था। नवनीत चोरीकी लीला कर कृष्ण सभीको तृप्त करते थे। पुताना, शकटासुर , वात्याचक्र आदि कंसके द्वारा भेजे गए रक्षासो को कृष्ण ने अपने कर कमलोंसे परलोक पोहचा दिया।
एक दिन मनमोहन माखन चुरा रहे थे तो मैया यशोदा ने उन्हें रंगे हाथो पकड़ लिया और ओखलिसे बाँध दिया। जिससे कृष्णा दामोदर बन गए और उन्होंने यमलार्जुन का उद्धार किया। महाव्रुक्ष के गिराने से गोप आशंकित हो गए और गोकुल से वृन्दावन की यात्रा शुरू हुई। श्रीकृष्ण अब गायो को वन में चराने ले जाते थे। वकासुर, वत्सासुर, अघासुर, व्योमासुर आदि दैत्यों का वध, कलियामर्दन, गोवर्धन धारण, ब्रह्माजी का मोह भंग, चिर हरण, महारास इत्यादि लीलाये वृन्दावन की पावन धरती पर भगवान ने की।
अक्रूरजी के माध्यमसे कंस ने श्रीकृष्ण तथा बलराम को कूटनीति यज्ञ के लिए आमत्रण दिया। मथुरा पोहचनेके बाद कृष्ण ने सुदामा माली पर कृपा की और कुब्जा का कुबर दूर किया। कंसका शिवधनुष तोड़ कर कूटनीति यज्ञ को विफल कर दिया। कुवलयापीड, चाणूर, मुष्टिक, शल और टशन जैसे कंस के योद्धाओको श्रीकृष्ण और बल दाऊ ने मार गिराया। अंतमे कंस के प्राण हर लिए। वासुदेव देवकीको पुत्रसुख और महाराज उग्रसेन को पुनः मथुराका सिहासन प्रदान किया।
अवन्ति में गुरु संदीपनी के आश्रममे बलराम और श्रीकृष्ण ने विद्या का ग्रहण किया। गुरुदक्षिणा के रूपमे संदीपनी मुनि को उनका मृत पुत्र जीवित कर दिया। मथुरा आने के बाद सत्रह बार जरासंध से युद्ध किया और अठरहवी बार श्रीकृष्ण रणछोड़ बने। बादमे द्वारकपुरिका निर्माण कर कृष्ण बलदाऊ संग वहा जा बसे। कालयवन की मुचकुन्दकी तपोअग्नी से मृत्यु , रुक्मिणी हरण, जमवंती से विवाह, सत्यभामा परिणय, भौमासुर वध , सत्या, भद्रा और लक्ष्मणा से विवाह , सोलह हजार एकसो कन्याओंका उद्धार , अर्जुन सुभद्रा का विवाह, सुदामा पर कृपा, युधिष्ठिर का राजसूय यज्ञ , शिशुपाल वध, द्रोपदी की लज्जा रक्षा आदि लीलाये आज भी कृष्ण भक्तोको पुलकित करती है।
पांडवोके वन गमन के पश्चात श्रीकृष्ण ने हमेशा पांडवो को योग्य परामर्श दिए और उनकी अनेक बार सहायता की। पांडवो के अज्ञात वास के पश्चात अभिमन्यु उत्तरा का विवाह, दुर्योधन को शांति सन्देश एवं विराट रूप का दर्शन, अंगराज कर्ण को उनकी वास्तविकता का बोध, अर्जुनका सारथ्य , भगवद्गीता का मनुष्योपयोगी उपदेश, देवव्रत भीष्म को धर्म का ज्ञान, गुरु द्रोण का पुत्र मोह नाश, कर्ण वध , दुर्योधन की मृत्यु, अश्वथामा का अमरता का अभिशाप, उत्तराके गर्भको जीवनदान और अंत में धर्म की स्थापना हेतु युधिष्ठिर का राज्याभिषेक ये प्रमुख महाभारत की लीलाये लिलाधर ने की जो आज भी मनुष्य को धर्म का मार्ग दिखती है।
अंतमे बलोन्मत्त और उदंड यदुवंशका पारस्परिक संघर्षमे संहार कर कृष्णने धरती परके अपने पूर्ण अवतार का संवरण किया।
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