भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी दिए जाने का समाचार मिलते ही देश में तीव्र रोष फैल गया । जगह-जगह प्रदर्शनकारियों की पुलिस से झड़पें हुईं । बडी संख्या में लोग मारे गए।
उन्ही दिनों कराची में कांग्रेस अधिवेशन के लिए सदस्य एकत्रित हो रहे थे। गांधीजी भी आए। वे जैसे ही स्टेशन पर उतरे, नवजीवन सभा के सदस्यों ने गांधी विरोधी नारोंके साथ काले झंडे उन्हें दिखाए।
किंतु इन सबसे गांधीजी जरा भी नाराज नहीं हुए, बल्कि उन्होंने एक वक्तव्य प्रकाशित कराया कि "यद्यपि वे अत्यंत क्रू्रु्द्ध थे औंर वे चाहते तो मुझे शारीरिक क्षति पहुंचा सकते थे, परंतु उन्होंने ऐसा नहीं किया । केवल काले फूल तथा झंडे से मेरा स्वागत किया। जहां तक में समझता हूं इससे उन्होंने उन तीनों स्वर्गीय देशभक्तों के फूल (भस्म) का अभिप्राय व्यक्त किया है में उनसे इसी शिष्टता की आशा करता हूं। क्योकि वे मानते हैं कि मैं भी उसी लक्ष्य के लिए प्रयत्नशील हू जिसके लिए वे प्रयत्न कर रहे हैं। अंतर केवल हमारे मार्ग का है । भगतसिंह की वीरता और त्याग के सामने किसका सिर न झुकेगा, किंतु मेरा यह अनुमान गलत नहीं है कि हम लोग जिस देशकाल में रह रहे हैं, यह वीरता कम मिलेगी । फिर अहिंसा का पालन तो शायद इससे भी बडी वीरता है । "
गांधीजी के इन विनम्र शब्दों का विरोधियों पर बडा अच्छा प्रभाव पडा और फिर उन्होंने गांधीजी का विरोध नहीं किया।
जब किसी महत्वपूर्ण लक्ष्य क्रो प्राप्त करना अभीष्ट हो तो विरोध सहन करने का धैर्य भी रखना चाहिए ।
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