पार्वतीजी ने शिव को पति रूप मेँ पाने के लिए तपस्या आरंभ की । लेकिन शिव को सांसारिक बंधनों में कदापि रुचि नहीं थी, इसलिए पार्वतीजी ने अत्यंत कठोर तपस्या की ताकि शिव प्रसन्न होकर उनसे विवाह कर लें।
वर्षो तपस्या करने के बाद एक दिन पार्वतीजी के पास एक ब्रह्मचारी आया। वह ब्रह्मचारी तपस्विनी पार्वती का अर्घ्य स्वीकार करने से पूर्व बोल उठा, "तुम्हारे जैसी सुकुमारी क्या तपस्या के योग्य है? मैंने दीर्घकाल तक तप किया है। चाहो तो मेरा आधा या पूरा तप ले लो, किंतु तुम इतनी कठिन तपस्या मत करो । तुम चहो तो त्रिभुवन के स्वामी भगवान विष्णु भी... ।"
किंतु पार्वती ने ऐसा उपेक्षा का भाव दिखाया कि ब्रह्मचारी दो क्षण को रुक गया । फिर बोला, "योग्य वर में तीन गुण देखे जाते है सौंदर्य, कुलीनता और संपत्ति। इन तीनों मे से शिव के पास एक भी नहीं है। नीलकंठ, त्रिलोचन, जटाधारी, बिभूति पोते, सांप लपेटे शिव में तुम्हें कहीं सौदर्य दिखता है? उनकी संपत्ति का तो कहना ही क्या, नग्न रहते है। बहुत हुआ तो चर्म (चमडा) लपेट लिया। कोई नहीं जानता कि उनकी उत्पत्ति कैसे हुई ।"
ब्रह्मचारी पता नहीं क्या क्या कहता रहा, किसु अपने आराध्य क्री निंदा पार्वती को अच्छी नहीं लगी । अत: वे अन्यत्र जाने को उठ खडी हुईं । तब शिब उनकी निष्ठा देख ब्रह्मचारी रूप त्याग प्रकट हुए और उनसे विवाह किया ।
जहां दृढ लगन, कष्ट सहने का साहस और अटूट आत्मविश्वास हो, वहां लक्ष्य की प्राप्ति अवश्य होती है।
कहानी तो वैसे शिव को पाने के लिये पार्वती ने किए हुए तप की है। परंतु यह ध्यान रखिये तपस्या भी एक कर्म है। कर्म पूरी निष्ठा से करो तो सफलता अवश्य मिलेगी। और हा इस कहानी का दूसरा पहलू है जैसे शिव के लिए पार्वती की तपस्या हमे बताई जाती है वैसे ये भी ध्यान रखे प्रकृति के सती रूप के आत्मदाह के बाद शिव जी भी गहरे ध्यान में थे। अर्थात शिव और पर्वती दोनों तप कर रहें थे। कहनेका का मतलब ये की सबको अपनी जिंदगी में मनचाही होने के लिए कर्म की भट्टी में तपना होता है।
अंत तक पढ़ने के लिए धन्यवाद मित्रो और सखियों। कृपया शेयर करें।
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