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Sunday 23 September 2018

रफूगर

*इलियास मखदूम साहब की*
*एक बेहद मज़ेदार कहानी...*
एक बादशाह ने
एक रफूगर रखा हुआ था...
वो कपड़ा नहीं बातें रफू करने में माहिर था, वो बादशाह की हर बात का कुछ इस तरह से विश्लेषण करता कि सुनने वाले उसे सच मान लेते..
एक दिन बादशाह ने दरबार लगाया और अपनी जवानी की कहानियाँ सुनाकर जनता को लुभाने की कोशिश करने लगा.
जोश में आकर कहने लगा एक बार तो ऐसे हुआ के मैंने आधे किलोमीटर से तीर मारा तो तीर सनसनाता हुआ गया और हिरन की बायीं आँख में लग गया और फिर दायें कान से होता हुआ पिछली दायीं टांग के खुर में जा लगा.
बादशाह को उम्मीद थी
कि जनता दाद देगी, तालियाँ पीटेगी लेकिन जनता ने कोई दाद नहीं दी.
वो बादशाह की बात पर यक़ीन करने को तैयार नहीं थी.
बादशाह समझ गया कि आज मैंने कुछ ज्यादा ही लंबी-लंबी छोड़ी है.
उसने अपने
रफूगर की तरफ देखा,
रफूगर उठा और कहने लगा : -
"भाइयों और बहनों मैं इस वाक़िये का चश्म दीद गवाह हूँ, दरअसल बादशाह सलामत एक पहाड़ी के ऊपर खड़े थे, हिरन नीचे था, हवा भी मुवाफ़िक़ चल रही थी, वरना तीर आधा किलो मीटर कहाँ जाता...?
जहाँ तक आँख, कान और खुर का सवाल है बता दूँ कि जिस वक़्त तीर लगा हिरन दायें खुर से दायाँ कान खुजा रहा था."
जनता ने
खूब ज़ोर-ज़ोर से
तालियाँ बजाकर दाद दी.
अगले दिन...
रफूगर ने अपना झोला उठाया और जाने लगा.
बादशाह ने पूछा : -
"कहाँ चल दिये...?"
रफूगर कहने लगा : -
*"बादशाह सलामत,*
*मैं छोटे-मोटे कपड़ों को रफू लगा लेता हूँ, शामियाने नहीं सिलता."*

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