स्वामी विवेकानंद 1
नरेन्द्र के पिता विश्व>नाथ दत्त मुक्त हस्ते से दान करते थे। अपने मुहल्ले में भी वे दाता विश्व नाथ के नाम से मशहूर थे। किसी के अर्थ संकट को देखकर वे अत्यन्त व्यथित होते थे। इस मामले में वे बिल्कुल बेहिसाबी थे। कुछ नशाखोर उनकी दानी प्रवृत्ति का नाजायज फायदा उठाते थे। एक दिन जब नरेन्द्रनाथ ने अपने पिता के समक्ष उनकी दानशीलता के इस अपव्यवहार की बात उठायी तो उन्होंने कहा, ‘‘जीवन कितना दुःखमय है, यह तुम अभी कैसे समझोगे? जब समझने के काबिल बनोगे, तब इन पियक्कड़ों को भी जो अपार दुःख से क्षणिक निस्तार लाभ करने के लिए नशा करते है। तुम दया की दृष्टि से देखोगे’। पिता के उपदेश का पूर्णतर रूप नरेन्द्रनाथ ने श्रीरामकृष्ण के जीवन और वाणी में पाया था। दया की दृष्टि, श्रद्धा की दृष्टि में बदल गयी। इसका कारण यह था कि श्रीरामकृष्णदेव ने उन्हें शिक्षा दी थी : ‘‘दया भी छोटी है। मनुष्य ईश्वणर का जीवन्तरूप है। ईश्व:र को दया दिखाने की बात भी क्या हम सोचते हैं? हम तो ईश्वार की सेवा एवं पूजा करके धन्य हो जाते हैं। इसलिए दया नहीं, शिवज्ञान से जीवसेवा, मनुष्य को भगवान समझकर सेवा करनी चाहिए। कोई भी व्यक्ति घृणा का पात्र नहीं होता। जो पापी है, वह भी असल में भगवान है। चोर रूपी नारायण, लुच्चारूपी नारायण’ इसलिए उत्तरकाल में स्वामी विवेकानन्द ने प्रत्येक व्यक्ति को श्रद्धा की दृष्टि से देखा। जो अधःपतित है, उन्हें भी कहतेः ‘ ‘God the Wicked, God the sinner’ - दुर्जन, पापी सभी भगवान हैं।
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