सिद्ध श्री जयकृष्णदास बाबा का जन्म बंगाल राज्य के किसी छोटे से ग्राम में हुआ। बचपन से ही हृदय में गौर चरणों के प्रति सहज प्रीति थी। महाप्रभु जी की असीम कृपा के कारण जगत से वैराग्य हुआ और वृंदावन की ओर पैदल चल पड़े। रात्रि में एक दिन श्री वृंदा देवी ने स्वपन में कहा - तुम काम्यवन के विमलकुण्ड पर जाकर भजन करो। बाबा आज्ञा मानकर विमलकुण्ड पर भजन करने लगे।
बाबा को वहां के गोप बालक परेशान करने लगे। बाबा ने विचार किया कहीं अन्य जगह जाकर एकांत में भजन करेंगे। गांव वासियों ने बाबा के लिए एक पक्की कुटिया बनवा दी जिसमें बाबा निरंतर भजन में डूबे रहते। रात भर श्यामा श्याम के ही याद में अश्रु विसर्जन करते रहते। कभी -कभी विरह में इतने व्यथित हो जाते कि प्रेम वेश में ऐसी हुंकार भरते दिशाएं विकम्पित हो जाती है। एक बार उनकी विरह हूँकार से कुटिया की छत ही फट गई जो आज भी दर्शनीय है।
एक दिन मध्याह् में बाबा मानसिक लीला चितवन कर रहे थे कि विमलकुंड के चारों और असंख्य गाय और गोप बालक आ गए। गोप बालक कुटिया के बाहर से चिल्लाने लगे - बाबा ओ बाबा! प्यास लगी है। नेक जल पिवाय दे। बाबा तो पहले से ही गांव की गवारिया बालकों से परेशान थे। बाबा ने कोई जवाब नहीं दिया। परंतु बालक भी कौन से कम थे ? अनेक प्रकार के उत्पात करने लगे ।
कुछ बालक दरवाजे के पास आकर बोले - बाबा ओ बंगाली बाबा! हम सब जाने कि तू कहां भजन करे है। अरे! कुटिया ते निकल के जल पिवाय दें। हम सबकूँ बड़ी प्यास लगी है। बाबा एक लकड़ी हाथ में लेकर क्रोधित होकर बाहर आ गए।
सामने क्या देखें असंख्य गाय और गोप बालक। सब एक से एक सुंदर। एक से एक अद्भुत। उनको देखते ही बाबा का क्रोध शांत हो गया। एक बालक जो सबसे सुंदर था उससे बाबा ने पूछा - लाला तुम कौन से गांव से आए हो?
बालक बोला -नंदगांव ते।
बाबा बोले- आपका नाम क्या है?
कन्हैया ! बालक ने उत्तर दिया।
दूसरे बालक से पूछा- तुम्हारा नाम क्या है?
बालक ने कहा - बलदाऊ! कहै मोते।
सभी बालक एक साथ बोल पड़े। देख बाबा पहले जल पिवाय दै। बात पीछे करियो। बाबा ने स्नेहवश करुवे से सब को जल पिला दिया।
बालक बोले- देख बाबा ! हम इतेक दूर ते आमें है, प्यासे ही चले जाएं। तू कछू जल और बाल भोग राख्यो कर।
बाबा बोले -नहीं नहीं। रोज -रोज परेशान मत करना। बाबा कुटिया में चले गये। अब बाबा सोचने लगे ऐसा अद्भुत बालक और ऐसी सुंदर गाय तो मैंने कभी नहीं देखी। और ना ही मधुर हृदय को आनंद प्रदान करने वाली वाणी सुनी। ये सभी यहां के थे या दिव्य थे। बाबा ने विचार किया अभी तो बाहर ही हैं एक बार और देख लूँ। जैसे ही बाबा बाहर आए तो देखा न तो वहां गाय थी न गोप बालक। बाबा दुखित: हो उन बालकों के वचन को याद करने लगे। तभी बाबा को तंद्रा आ गई। श्री कृष्ण बोले - बाबा दुखी मत हो! कल तेरे पास में फिर आऊंगो। बाबा की तंद्रा टूटी और धैर्य धारण किया।
दूसरे दिन एक वृद्धा मैया में एक गोपाल जी का वि्ग्रह लेकर बाबा के पास आई। बोली- बाबा!मोते अब जाकी सेवा नॉय होय। लै तू जाकी सेवा कियौ कर।
बाबा बोले -मैं इनकी सेवा कैसे करूंगा ? सेवा की सामग्री कहां से लाऊंगा?
वृद्धा मैया बोली -तू चिंता मत कर मैं रोज सेवा की सामग्री दै जायो करूंगी। ऐसा कह कर वृद्धा मैया चली गई। बाबा प्रेम से गोपाल जी को निहारने लगे। अति सुंदर छवि को देखकर बाबा मुग्ध हो गये। उसी रात्रि वृद्धा मैया ने बाबा को स्वप्न में कहा -बाबा! मैं वृंदा देवी हूं।श्यामसुंदर की आज्ञा से वृद्धा के रूप में गोपाल जी देने मैं ही आई थी। अब तू प्रेम से गोपाल की सेवा कियौ कर। बाबा प्रेम से गोपाल जी की सेवा करने लगे।
इस प्रकार एक दिन बाबा मानसी लीला में डूबे हुए थे। अचानक बाबा पुकारने लगे - मेरे लहंगा कहां है, मेरी फरिया कहां हैं ? अपने दिव्य मंजरी स्वरुप को प्राप्त कर बाबा चैत्र शुक्ल द्वादशी अर्थात आज ही के दिन भौतिक देह छोड़कर निकुंज लीला में प्रवेश कर गए।
एक संत बलरामदास जी कहते है-
"जहां मर कै जाना है 'बलि'
तहाँ जिन्दा क्यों नही जाइये।।"
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