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Sunday 23 September 2018

खर्च हो जाना खुद का

व्हाट्सअप से प्राप्त पोस्ट

खर्च हो जाना खुद का
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पुणे में होटल की लॉबी में खड़ा था कि अचानक एक सज्जन सामने आकर मुझसे मुझने लगे कि क्या आप एयरपोर्ट जा रहे हैं?
मैंने उनकी ओर देखा। एक हाथ में गत्ते का एक बड़ा सा पैकेट और दूसरे हाथ में एक बैग लटकाए वो बहुत हड़बड़ी में थे।
मैंने अधिक सोचे बिना कह दिया कि हां, मैं टैक्सी का इंतज़ार कर रहा हूं।
सज्जन की आंखें चमकीं।
“क्या मुझे भी एयरपोर्ट तक छोड़ देंगे? मैंने जो टैस्की बुक की थी, पता नहीं क्यों वो कैंसिल हो गई। मेरी फ्लाइट का टाइम हो गया है।”
मैंने कहा, “जी, चलिए। मुझे कोई परेशानी नहीं है।”
मेरी टैक्सी आ गई थी। दोनों एयरपोर्ट की ओर चल पड़े।
रास्ते में उन्होंने बताया वो दिल्ली जा रहे हैं। स्पाइसजेट की फ्लाइट से।
मैंने कहा कि मैं भी दिल्ली जा रहा हूं, उसी फ्लाइट से।
हमारा परिचय हो चुका था।
मैंने देखा कि वो गत्ते के उस डिब्बे को बहुत संभाल कर अपनी गोद में रखे थे। डिब्बा बहुत पतला-सा और बेढब था।
आप तो संजय सिन्हा को जानते ही हैं कि किसी चीज़ पर उनकी नज़र पड़ जाए, मन में सवाल उठने लगे तो वो बिना पूछे रह नहीं सकते। तो मैंने पूछ ही लिया कि इस डिब्बे में क्या है, जिसे आप बार-बार संभाल रहे हैं।
उन्होंने कहा कि इसमें होटल से मैंने एक्सट्रा ब्रेकफास्ट पैक करा लिया है। हवाई जहाज में खरीद कर खाने से अच्छा है कि होटल से मुफ्त में पैक करा लिया।
मैं सोच में पड़ गया। होटल में सुबह-सुबह नाश्ता मुफ्त में था। सभी लोग नाश्ता कर रहे थे। मैं भी नाश्ता करके ही होटल से निकला था।
मुझे लगा कि ये बेचारे नाश्ता नहीं कर पाए होंगे तो इन्होंने पैक करा लिया होगा।
बातचीत आगे बढ़ती रहे, इसलिए मैंने कह दिया कि मैंने तो होटल में ही नाश्ता कर लिया था।
सज्जन मुस्कुराए। उन्होंने बताया कि नाश्ता तो उन्होंने भी कर लिया था। पेट भरा हुआ है। पर इसमें कुछ फल, मफिन और डोनट अलग से रखवा लिया हूं। होटल वाले से मांगा तो उसने बिना कुछ कहे पैक कर दिया।
मैं मन ही मन सोच रहा था कि होटल के किराए में मुफ्त नाश्ता तो शामिल रहता है, और यकीनन ये सुविधा उन लोगों के लिए होगी, जो हड़बड़ी में नाश्ता नहीं कर पाते होंगे। पर जब नाश्ता कर ही लिया तो फिर मुफ्त में और लेने की क्या ज़रूरत थी। खैर, सबकी अपनी-अपनी सोच होती है। उन्हें लगा होगा कि मुफ्त में मिल रहा है तो ले लो।
हम एयरपोर्ट पहुंच चुके थे। टैक्सी वाले को मैंने भुगतान किया।
मैंने देखा कि उस गत्ते के डिब्बे की वज़ह से उन्हें काफी मुश्किल हो रही थी। डिब्बा बड़ा था। अंदर जो भी था, वो बार-बार ढुलक रहा था।
वो बेचारे डिब्बा संभालने के चक्कर में गाड़ी से उतरते हुए गिरते-गिरते बचे।
मैंने टोका भी कि संभल कर उतरिए।
वो एक हाथ में डिब्बा, दूसरे में बैग लिए बहुत मुश्किल से बोर्डिंग की लाइन में खड़े हुए।
मेरे पास सिर्फ एक छोटा सा बैग था। मैं आराम से लाइन में खड़ा था। पर वो उस गत्ते के डिब्बे को संभालने में खुद को परेशानी में डाले हुए थे।
बोर्डिंग पास लेने के बाद फ्लाइट में जाने तक कई बार लगा कि या तो वो गिर पड़ेंगे या डिब्बा ही हाथ से छूट जाएगा। मैं चुपचाप उन्हें देख रहा था।
हमारी सीट अगल-बगल ही थी।
हम प्लाइट में बैठ गए। फ्लाइट उड़ गई। वो गोद में डिब्बे को संभाले बैठे रहे।
थोड़ी देर में प्लाइट में चाय-नाश्ता सर्व होना शुरू हुआ। जिन्होंने पहले से बुकिंग करा रखी थी, उन्हें तो वो सर्व कर ही रहे थे। बाकियों के पास रुक-रुक कर पूछ रहे थे कि आपको कुछ चाहिए?
संजय सिन्हा को जब कुछ नहीं सूझता तो वो चाय पीने की इच्छा जता देते हैं। घर में भी पत्नी जितनी बार चाय के बारे में पूछती है, मैं हां कह देता हूं।
मैंने कह दिया कि एक चाय दे दीजिए।
औपचारिकता वश मैंने बगल में बैठे सज्जन से भी पूछ लिया कि आप चाय लेंगे?
वो थोड़ी देर तक उहापोह में रहे, फिर उन्होंने कहा कि ले लूंगा।
दो गरम चाय मिल गई। मैंने दोनों का भुगतान कर दिया।
चाय को सामने वाले ट्रे पर रख कर उन्होंने डिब्बे की ओर देखते हुए मुझसे पूछा कि आप कुछ लेंगे क्या?
मैंने कहा, बिल्कुल नहीं। पेट भरा हुआ है। सुबह नाश्ता ठीक से कर लिया था।
मेरे सहयात्री ने कहा कि पेट तो उनका भी भरा है। इसे वो दिल्ली पहुंच कर खाएंगे। लंच का काम इसी से हो जाएगा। 
मैं समझ नहीं पा रहा था कि क्या कहूं।
कुछ लोग बहुत दूर की सोचते हैं। नाश्ता के साथ खाने का इंतज़ाम भी कर लेते हैं।
चाय रखी थी। वो थोड़ा हिले चाय उठाने के लिए। अचानक गत्ते का डिब्बा पेट से ढुलक कर नीचे फिसल गया।
एक केला, एक सेब, एक मफिन, एक डोनट और कुछ-कुछ और।
डिब्बा खुल कर बिखर गया था, सारा सामान फर्श पर पड़ा था।
सेब और डोनट तो ढुलक कर काफी दूर तक चले गए थे। एयर होस्टेस आई, उसने देखा कि उनका डिब्बा नीचे गिरा पड़ा है।
खैर, कुछ हो नहीं सकता था। एयर होस्टेस डस्टबिन में लेकर आई थी, सब कुछ उसी में चला गया।
मेरे सह यात्री बहुत उदास थे। मैंने ढाढस बंधाने की कोशिश की कि डिब्बा बहुत बेढब था। आपको संभालने में भी मुश्किल आ रही थी।
वो चुप थे। उदास थे।
मैं सोच रहा था कि आदमी भविष्य के लिए कितना कुछ संचित करता है। पर क्या वो उसका सुख भोग पाता है?
होटल से विमान तक की दूरी उन्होंने बहुत परेशानी में तय की। ज़रूरत से अधिक वज़न लेकर चलते रहे। पेट भरा था, मन नहीं। भविष्य की चिंता में उन्होंने वर्तामान खराब कर लिया था।
दो घंट की उड़ान में मैं यही सोचता रहा।
आदमी को कितने की ज़रूरत होती है? आदमी क्यों संतुष्ट नहीं होता?
मैं सोचता रहा कि आदमी जीने की जगह जीने की तैयारी में खुद को क्यों खर्च कर देता है?

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