सबको परमगति प्रदान करते हुए उदार शिरोमणि भगवान शबरी को भी गति देने के लिए उसके आश्रम में पधारे । ‘आश्रम’ शब्द से शबरी जी का विरक्त होना सूचित किया गया है, क्योंकि वन में बहुत - से कोल - किरात आदि भी निवास करते हैं, परंतु उनके घरों को कभी ‘आश्रम’ नहीं कहा जाता । शबरी जी मन, वचन और शरीर - सर्वांग से श्रीभगवान के शुद्ध प्रेम में सराबोर थीं । वस्तुत: भगवान में शबरी जी की निष्ठा, माता कौसल्या जी के समान ही, वात्सल्यभाव की थी ।
जैसे माता अपने बच्चे के लिए अच्छी प्रकार चीजें संग्रह करके रखती है, वैसे ही उसने वे सुंदर फल भगवान के लिए लाकर उन्हें मानो अमृत से हजारों गुने सुंदर स्नेह के रस में डुबाकर रखा । श्रीराम जी भाव के भूखे हैं, इसलिए उन्होंने भाई लक्ष्मण जी के सहित उसका माता के समान आदर किया । श्रीरघुनाथ जी ने उसे माता के समान अपने हाथों से जलांजलि दी ।
जिस दिन श्रीमतंग ऋषि द्वारा उन्हें यह आदेश मिला कि श्रीरघुनाथ जी इसी आश्रम में अवश्य आकर मिलेंगे, उसी दिन से वे प्रतिदिन सबेरे सोकर उठते ही यह निश्चय करतीं कि ‘भगवान आज अवश्य पधारेंगे ।’ फिर आश्रम को झाड़ - बुहारकर स्वागत की तैयारी करतीं, अच्छे - अच्छे मीठे - मीठे फल मूल पत्तों के दोनों में सजाकर रखतीं और बार बार बाहर आतर श्रीरघुनाथ जी की बाट जोहतीं । इस प्रकार भगवान की प्रतीक्षा में ही उनके दिन बीतते थे ।
श्रीशबरी जी ने संतशिरोमणि महर्षि श्रीमतंग मुनि जी महाराज की शरणगति प्राप्त कर ली थी और वे भी उसे स्वीकार करके उनके अनुकूल हो गये थे, तात्पर्य यह है कि जब कोई बड़भागी जीव अपनी प्रवृत्ति का त्याग करके विरक्त हो जाता है और किन्हीं सच्चे संत सद् गुरु की शरण ग्रहण कर लेता है तो वहीं उसकी प्रथम भक्ति होती है ।
दूसरी भक्ति जब संत - सद् गुरु श्रीरामकथा (जो संतों का जीवन - प्राण है) का श्रवण कराने लगते हैं, तब उसमें ‘रीति’ (प्रेम) होने को कहते हैं ।
तीसरी भक्ति मानरहित होकर उन संत - सद् गुरु के चरण कमलों की सेवा करना है ।
चौथी भक्ति भगवान के गुणों का स्वयं निष्कपट भाव से गायन करना है । अर्थात् जब श्रीगुरु की सेवा - संगति में सदा रहते रहते और उनके मुख से श्रीभगवान का यश सुनते सुनते जब श्रीरामयश का गान होने लगे, तब चौथी भक्ति संपन्न होती है ।
जब शरणागत मुमुश्रु इन चार प्रकार की भक्तियों से संपन्न हो जाता है, तब संत - सद् गुरु उसे अधिकारी जानकर श्रीराम - मंत्र की दीक्षा देते हैं । अत: श्रीरघुनाथ जी शबरी जी से अपने मंत्र का दृढ़ विश्वास के साथ जप करने को पांचवीं भक्ति बतला रहे हैं ।
छठी भक्ति इंद्रियों का दमन, बहुमुखी कर्मों की प्रवृत्ति से वैराग्य और सज्जनधर्म के पालन में सर्वदा तत्पर रहना बतलायी गयी है । तात्पर्य यह कि गृहस्थी के जंजाल में, कर्मों के प्रपंच में विशेष प्रवृत्ति होने का जो अभ्यास है, उसे रोककर तथा इंद्रियों को उनके विषयों से एकदम हटाकर संत स्वभाव का पालन एवं भगवान के नाम रूप लीला धामादि की ही सेवा भजन पूजन में समय व्यतीत होने लगना छठी भक्ति है ।
सातवीं भक्ति समस्त जगत को राममय देखना, सभी के प्रति समान भाव रखना, पर संतों को सबसे बढ़कर मानना है । यहां भी संत सद् गुरु की महामहिमा का वर्णन यह भाव सूचित करता है कि भगवान की प्राप्ति के साधन संत ही हैं ।
आठवीं भक्ति यदृच्छालाभसंतोष अर्थात् जो कुछ प्राप्त हो जाएं, उसी में संतुष्ट रहना और स्वप्न में भी पराये दोष को न देखना बतायी गयी है । अर्थात् भक्ति की आठवीं सीढ़ी तक पहुंचने पर शरणागत शिष्य की भी संत - वृत्ति बन जाती है । उसे बिना कोई उद्योग किये अनिच्छितरूप से जो कुछ प्राप्त होता रहता है, उसी को वह अपने शरीर का प्रारब्ध मान कर उसी से अघाये रहता है और भूलकर भी किसी जीव में दोष - दृष्टि नहीं करता, बल्कि ‘अवगुन में गुन गहानि सदा है’ की वृत्ति रखता है । अत: कृपाधाम श्रीभगवान इन वृत्तियों को भी अपना भजन मानते हैं और इसे आठवीं भक्ति बतलाते हैं ।
अंत में श्री प्रभु जी अपनी नवीं भक्ति के लक्षण इस प्रकार बतलाते हैं - ‘स्वभाव से सरल होना (किसी से भी कठोर व्यवहार न करना), मन से निश्छल होना (कपट का लेश भी न होना) आदि का उपदेश किया गया हैं । और मेरे ही भरोसे पर दृढ़ रहकर हृदय में किंचित भी हर्ष - विषाद का अनुभव न करना ।’
श्रीभगवान कहते हैं कि ‘शबरी ! इन नौ भक्तियों में से एक भी भक्ति जिसे जिसे प्राप्त हो वह स्त्री - पुरुष, जड़ चेतन कोई भी हो, मुझे अत्यंत प्रिय है, फिर तुममे तो ये नवों भक्तियां दृढ़रूप से विद्यमान हैं ।’
जय श्री राम
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