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Tuesday 18 August 2020

बीमार पुत्र के बजाय कर्म को वरीयता की दी तिलक ने

लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के जीवन का एक प्रसंग है जो उल्लेखनीय होने के साथ प्रेरणा स्पद है स्वाद भी है। एक बार लोकमान्य तिलक अपने कार्य में किसी महत्वपूर्ण प्रश्न पर विचार कर रहे थे। प्रश्न बड़ा ही जटिल और राजनीतिक था पूर्णविराम दूसरे शब्दों में कहें तो यह कि प्रश्न राष्ट्र की सवा घंटा से जुड़ा था। तिलक अपने खास सहयोगी यों के साथ बैठकर विचार विमर्श कर रहे थे। तभी चपरासी ने धीरे से दरवाजा बजाया। अनुमति मिलने पर वह अंदर आया और तिलक से बोला बड़े भैया की तबीयत बहुत खराब है। तिलक ने सुन लिया किंतु उठकर नहीं गए। वास्तव में तिलक के बड़े पुत्र का स्वास्थ्य कई दिनों से खराब चल रहा था। उस दिन तबीयत अधिक बिगड़ गई। तिलक अपने काम में लगे नहीं। थोड़ी देर बाद उनके एक सहयोगी ने आकर कहा पुत्र इतना आश्वस्त है कि कब किया हो जाए कहा नहीं जा सकता। फिर भी आप अपने काम में ही उलझे है। तिलक ने इस बार बार की कार्य बाधा से परेशान होकर कहा उसके लिए चिकित्सकों को कह दिया है। वे देख ही लेंगे। मैं जा कर क्या करूंगा। यह काम मुझे तो करना ही नहीं है। सहयोगी चला गया। काम पूरा कर तिलक घर लौटा लौटे तो पुत्र का देहांत हो चुका था। तिलक तत्काल उसकी सहायता की तैयारी में जुट पड़े। यह घटना कर्म निष्ठा व प्रज्ञता का आदर्श उदाहरण है।

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