एक बार पंडित जवाहरलाल नेहरू किसी कार्य से मसूरी गए। वहां वे प्रायः लोगों से मेल मुलाकात के विचार से बाजार घूमने चले जाते थे। 1 दिन से मसूरी के बाजार में लोगों से मिलते हुए घूम रहे थे कि एक मुसलमान की चिड़िया की दुकान के सामने रुक गए पूर्णिया उनके मन में आया कि क्यों ना एक छड़ी खरीदे। उन्होंने दुकानदार से एक बढ़िया सी छड़ी दिखाने को आग्रह किया पूर्णाराम उसने अनेक प्रकार की छड़ी य उन्हें दिखाएं। उनमें से उन्होंने एक छड़ी पसंद कर उसको दाम दुकानदार से पूछे तो वह बोला पंडित जी आप तो इस देश की अमूल्य रत्न है। आपसे भला मैं क्या मांगू नेहरू जी ने विनम्रता से कहा बिना की मर्जी है तो यह छड़ी मैं नहीं ले पाऊंगा। नेहरू जी की बात सुनकर दुकानदार अत्यंत स्नेह से बोला कीमत तो मैं आपसे नहीं ले पाऊंगा पूर्णविराम बचपन में मैंने आपके गोद में खिलाया है। आनंद भवन के प्रांगण में मैंने आपसे तोतली बोली में सैकड़ों बार बातचीत की है। आप पर मेरा हक है जनाब। नेहरु जी उसकी आत्मीयता देख अभिभूत हो उठे और बोले मुझ पर तो आपका पूरा हक है पूर्णविराम लेकिन मेरा भी तो आपके प्रति कोई कर्तव्य है। यह रुपए रखिए दुकानदार को प्रेम से दिए और आगे बढ़ गए। सार यह है कि पद्य शादी किसी भी दृष्टि से बड़ा बनने के बावजूद अपने कर्तव्य निष्ठा को स्मरण रखना ही सच्चे अर्थों में व्यक्ति के बड़प्पन को दर्शाता है।
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