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Saturday 18 July 2020

जब सिकंदर के अहंकार को चुर किया एक साधु ने

सिकंदर अपने विश्व विजय के अभियान पर निकला था। कई देशों में वह अपनी विजय पताका पहरा चुका था पूर्णविराम जैसे जैसे उसकी जीत होती जा रही थी वैसे वैसे उसका अहंकार बढ़ता जा रहा था। सिकंदर को लगने लगा था कि इस धरती पर उससे अधिक शक्तिशाली कोई नहीं है। उसकी बातों और व्यवहार से अब उसका यह आकार चलकने लगा था और उनके अनेक अवसरों पर वह स्वयं से बड़े व सम्मानित लोगों का अपमान करने से भी नहीं सकता था। ऐसे ही एक बार सिकंदर का काफिला किसी जंगल से गुजर रहा था। तभी उसे एक साधु की कुटिया दिखाई थी। थोड़ी देर सुस्ताने के उद्देश्य से सिकंदर बहारों का। साधु से जो बन पड़ा वह सत्कार उसने किया। सिकंदर साधु के व्यवहार और उसकी ज्ञान पूर्ण बातों से बड़ा प्रभावित हुआ। उसने साधु से पूछा महाराज मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूं साधु बोले मैंने आपका यथाशक्ति सत्कार किया। अब आप तत्काल यहां से चले जाइए। सिकंदर को ऐसे उत्तर की आशा नहीं थी। वह क्रोधित होकर बोला क्या आपने शांत भाव से कहा यदि ऐसा है तो मुझे मार कर फिर से जिंदा कर दो। साधु की बात सुनकर सिकंदर का सिर शर्म से झुक गया। सार यह है कि मनुष्य कभी प्रकृति और ईश्वर से बड़ा ताकतवर नहीं हो सकता। इसलिए अपनी शक्ति पर कार से बचते हुए उससे सकारात्मक कार्यों में लगाना चाहिए ताकि कल्याण को साकार किया जा सके।

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