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Wednesday, 24 June 2020
व्यापारी मेरे साधक से जाने दो देने के सही मायने
एक जैन साधक के अनेक शिष्य थे। साधक अत्यंत ज्ञानी और परम ज्ञानी पुरुष थे। इसीलिए उनकी ख्याति भी बहुत थी। का प्रवचन सुनने दूर-दूर से आते थे धीरे-धीरे भीड़ इतनी होने लगी कि आश्रम छोटा पड़ने लगा एक धनी व्यापारी भक्तों ने सोचा कि वह साधक के लिए बड़ा आश्रम बनवा देगा इस कार्य के लिए उसने एक थैली साधक के पास गया उसने साधक से कहा मैं यह पास सोने के सिक्के आपको वेट करना चाहता हूं ताकि आप नया आश्रम बनवा सके साधक ने निर्विकार भाव से कहा ठीक है मैं ले लेता हूं अजीब लगा। उस जमाने में 3 4 सोने के सिक्कों से एक साधारण परिवार का वर्ष भर का खर्चा निकल जाता था और साधक ने 500 सोने के सिक्के लेकर भी कुछ नहीं कहा। व्यापारी बोला गुरुजी थैली में सोने के सिक्के हैं। साधक ने कहा हां तुमने बताया। व्यापारी फिर बोला 500 पूरा साधक ने कहा हां पूर्ण व्यापारी इस उम्मीद था कि शायद साधक उसकी उदारता को देखकर उसका शुक्रिया अदा करेगा उमरा वह फिर बोला बड़ी रकम है गुरुजी। साधक ने कहा हां वास्तव में रखा है और क्षमा करना कि तुम इतने ट्रू ट तक ना हो कि इतनी बड़ी रकम स्वीकारने के लिए तुमने मेरा शुक्रिया अदा नहीं किया पूरा साधक की बात का मर्म समझ व्यापारी शर्मिंदा हो गया पूरा वस्तुतः दान में देने का भाव ना होकर स्वीकारने वाले के प्रति आभार भाव होना चाहिए।
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