नमस्ते दोस्तों आज हम एक कविता पढ़ेंगे जिसका नाम है रम्या और विनीता की वन्दना में। यह कविता दैनिक भास्कर से ली गयी है।
दिव्या दिवंगत नर्स रम्या और विनीता!
वह हर कोई तुम्हारा ऋणी था।
ऋणी है और ऋणी रहेगा,
इंसानियत का हर जर्रा यही कहेगा-
दृश्य जहा था हाहाकारी,
युवा चेतना वह न हारी।
चौबीस की थी दोनों नर्से,
पीड़ा पर करुणा बन बरसी।
आज धुए की आपाधापी,
इन्हे न कोई चिंता व्यापी।
कुटिल काल क्रीड़ा कराल थी,
हिम्मत इनकी बेमिसाल थी।
तड़प थे बेबस रोगी,
निश्चित ही था दुर्गित होगी।
दंघोटु था धुआँ भयानक,
तन को झुलसाता था पावक।
मृत्यु अचानक खुलकर नाची,
याम ने अपनी पोथी बाची।
गूंज रही थी कलप-कराहें,
सांसो की जो भिक्षा चाहे।
जीवन बानी विनीता-राम्या,
धुएं-धास में साँस सुरम्या।
जिनको थे जीवन के लाले,
एक-एक कर आठ निकले।
ये दोनों कोमल कन्याएँ,
उठा-उठाकर बहार लाई।
बहार से फिर जाये अंदर,
हिम्मत का बन एक समंदर।
नवा मरीज अपाहिज भरी,
आग हो गयी प्रलयंकारी।
चारो ओर धुआँ ज़हरीला,
खत्म कर गया इनकी लीला।
परहित अपने प्राण गवाए,
सबने अपने शीश झुकाये।
जिन्होंने आहुति दी निष्काम,
रम्य और विनीता को प्रणाम।
पढ़ने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद।
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