अयोध्या में भगवान राम से कुछ पीढ़ियों बाद ध्रुवसंधि नामक राजा हुए । उनकी दो स्त्रियां थीं । पट्टमहिषी थी कलिंगराज वीरसेन की पुत्री मनोरमा और छोटी रानी थी उज्जयिनी नरेश युधाजित की पुत्री लीलावती । मनोरमा के पुत्र हुए सुदर्शन और लीलावती के शत्रुजित । महाराज की दोनों पर ही समान दृष्टि थी दोनों राजपुत्रों का समान रूप से लालन - पालन होने लगा ।
इधर महाराज को आखेट का व्यसन कुछ अधिक था । एक दिन वे शिकार में एक सिंह के साथ भिड़ गये, जिसमें सिंह के साथ स्वयं भी स्वर्गगामी हो गये । मंत्रियों ने उनकी पारलौकिक क्रिया करके सुदर्शन को राजा बनाना चाहा ।
इधर शत्रुजित के नाना युधाजित के इस बात की खबर लगी तो वे एक बड़ी सेना लेकर इसका विरोध करने के लिए अयोध्या में आ डटे । इधर कलिंग नरेश वीरसेन भी सुदर्शन के पक्ष में आ गये । दोनों में युद्ध छिड़ गया । कलिंगाधिपति मारे गये ।
अब रानी मनोरमा डर गयी । वह सुदर्शन को लेकर एक धाय तथा महामंत्री विदल्ल के साथ भागकर महर्षि भरद्वाज के आश्रम प्रयाग पहुंच गयी । युधाजित ने अयोध्या के सिंहसन पर शत्रुजित को अभिषिक्त किया और सुदर्शन को मारने के लिए वे भरद्वाज के आश्रम पर पहुंचे,पर मुनि के भय से वहां से उन्हें भागना पड़ा ।
एक दिन भरद्वाज के शिष्यगण महामंत्री के संबंध में कुछ बातें कर रहे थे । कुछ ने कहा कि विदल्ल क्लीब (नपुंसक) है । दूसरों ने भी कहा - ‘यह सर्वथा क्लीब है ।’
सुदर्शन अभी बालक ही था । उसने बार बार जो उनके मुंह से क्लीब क्लीब सुना तो स्वयं भी ‘क्ली - क्ली’ करने लगा । पूर्वपुण्य के कारण वह कालीबीज के रूप में अभ्यास में परिणत हो गया । अब वह सोते, जागते, खाते, पीते, क्ली - क्ली रटने लगा ।
इधर महर्षि ने उसके क्षत्रियोचित संस्कारादि भी कर दिए और थोड़े ही दिनों में वह भगवती तथा ऋषि की कृपा से शस्त्र - शस्त्रादि सभी विद्याओं में अत्यंत निपुण हो गया ।
एक दिन वन में खेलने के समय उसे देवी की दया से अक्षय तूणीर तथा दिव्य धनुष भी पड़ा मिल गया । अब सुदर्शन भगवती की कृपा से पूर्ण शक्ति - संपन्न हो गया ।
इधर काशी में में उस समय राजा सुबाहु राज्य करते थे । उनकी कन्या शशिकला बड़ी विदुषी तथा देवीभक्त थी । भगवती ने उसे स्वप्न में आज्ञा दी कि ‘तू सुदर्शन को पति के रूप में वरण कर ले । वह तेरी समस्त कामनाओं को पूर्ण करेगा ।’ शशिकला ने मन में उसी समय सुदर्शन को पति के रूप में स्वीकार कर लिया ।
प्रात:काल उसने अपना निश्चय माता पिता को सुनाया । पिता ने लड़की को जोरों से डांटा और एक असहाय वनवासी के साथ संबंध जोड़ने में अपना अपमान समझा । उन्होंने उस स्वयंवर में सुदर्शन को आमंत्रित भी नहीं किया, पर शशिकला भी अपने मार्ग पर दृढ़ थी । उसने सुदर्शन को एक ब्राह्मण द्वारा देवी का संदेश भेज दिया । सभी राजाओं के साथ वह भी काशी आ गया ।
इधर शत्रुजित को साथ लेकर उसके नाना अवंतिनरेश युधाजित भी आ धमके थे । प्रयत्न करते रहने पर भी शशिकला द्वारा सुदर्शन के मन ही मन वरण किये जाने की बात सर्वत्र फैल गयी थी । इसे भला, युधाजित कैसे सहन कर सकते थे । उन्होंने सुबाहु को बुलाकर धमकाया । सुबाहु ने इसमें अपने को दोषरहित बतलाया । तथापि युधाजित ने कहा - ‘मैं सुबाहु सहित सुदर्शन को मारकर बलात् कन्या का अपहरण करूंगा ।’
राजाओं को बालक सुदर्शन पर कुछ दया आ गयी । उन्होंने सुदर्शन को बुलाकर सारी स्थिति समझायी और भाग जाने की सलाह दी ।
सुदर्शन ने कहा - ‘यद्यपि न मेरा कोई सहायक है और मेरे कोई सेना ही है, तथापि मैं भगवती के स्वप्नगत आदेशानुसार ही यहां स्वयंवर देखने आया हूं । मुझे पूर्ण विश्वास है, वे मेरी रक्षा करेंगी । मेरी न तो किसी से शत्रुता है और न मैं किसी का अकल्याण ही चाहता हूं ।’
अब प्रात:काल स्वयंवर प्रागंण में राजा लोग सज - धज के आ बैठे तो सुबाहु ने शशिकला से स्वयंवर में जाने के लिए कहा, पर उसने राजाओं के अपमान तथा उनके द्वारा उपस्थित होने वाले भय की बात कही । शशिकला बोली - ‘यदि तुम सर्वथा कायर ही हो तो मुझे सुदर्शन के हवाले करके नगर से बाहर छोड़ आओ ।’ कोई दूसरा रास्ता भी नहीं था, इसलिए सुबाहु ने राजाओं से तो कह दिया कि ‘आपलोग कल स्वयंवर में आयेंगे, आज शशिकला नहीं आयेगी ।’ इधर रात में ही उसने संक्षिप्त विधि से गुप्तरीत्या सुदर्शन से शशिकला का विवाह कर दिया और सबेरा होते ही उन्हें पहुंचाने जाने लगा ।
युधाजित को भी बात किसी प्रकार मालूम हो गयी । वह रास्ते में अपनी सेना लेकर सुदर्शन को मार डालने के विचार से स्थित था । सुदर्शन भी भगवती का स्मरण करता हुआ वहां पहुंचा । दोनों में युद्ध छिड़ने वाला ही था कि भगवती साक्षात् प्रकट हो गयी । युधाजित की सेना भाग चली । युधाजित अपने नाती शत्रुजित के साथ खेत रहा । पराम्बा जगजननी ने सुदर्शन को वर मांगने के लिए प्रेरित किया । सुदर्शन ने केवल देवी के चरणों में अविरल, निश्चय अनुराग की याचना की । साथ ही काशीपुरी की रक्षा की भी प्रार्थना की ।
सुदर्शन के वरदान स्वरूप ही दुर्गाकुण्ड में स्थित हुई पराम्बा दुर्गा वाराणसी पुरी की अद्यावधि रक्षा कर रही हैं ।
जय जय माँ
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