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Tuesday, 1 December 2020
न्याय के लिए न्यायाधीश ने किया त्याग
कोलकात में लक्ष्मी नारायण मुरोदिया नामक एक शांत स्वभाव के व्यापारी थी पूर्णविराम एक बार किन्हीं दो भाइयों में संपत्ति को लेकर आपस में झगड़ा हो गया और बंटवारा एक अंगूठी पर बात आ गई। दोनों ही भी उस अंगूठी को लेना चाहते थे। उन्होंने समझाया कि एक भाई अंगूठी ले ले और दूसरा भाई कीमत ले ले किंतु दोनों नहीं माने पूर्णविराम तब संत ने युक्ति सूची और ठीक वैसी ही अंगूठी अपने पास से बनवाई। भाई के पास अंगूठी थी उससे कहा कि देखो मैं उसे समझा दूंगा पर आप अंगूठी पहनना छोड़ कर उसे घर में रख दीजिए ताकि उसे उसकी याद ही ना आए उसने बात मान ली। फिर संत दूसरे भाई के पास जाकर उसे अपनी बनवाई अंगूठी देकर बोले देखो मैंने तुम्हें अंगूठी ला दी है किंतु यह बात किसी से कहना नहीं अन्यथा तुम्हारा भाई इसे अपनी हार समझ कर दुखी होगा। अंगूठी को घर में रख देना उसे पहनना ही मत उसने प्रसन्न होकर अंगूठी ले ली और बात मान ली। दोनों भाइयों में झगड़े का निपटारा हो गया दो-तीन साल बाद जब यह भेद खुला तो दोनों भाइयों को बड़ा अचरज हुआ और वे अंगूठी लौटाने गए किंतु संत ने यह कहकर कि मैं आप लोगों से बड़ा हूं और इसलिए मुझे अधिकार है कि मैं आपको कुछ उपहार दूं अंगूठी नहीं ली।
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