उसने अपने बेटे की भी मूर्तिकला सिखाई। मै अपने पिता के समान ही परिश्रमी और कल्पनाशील बनूंगा। जल्दी ही वह इस काम में पारंगत हो गया "और सुंदर मूर्तियां बनाने लगा । पर मूर्तिकार अपने पुत्र द्वारा बनाई गई मूर्तियां मॅ कोई न कोई कमी निकाल देता । इस तरह कई वर्ष गुजर गए । सम उसकी ‘ तारीफ करते, लेकिन उसके पिता का व्यवहार नहीं बदला । इससे पुत्र दुखी ओर चितिंत रहने लगा। एक दिन उसे एक उपाय सूझा। उसने एक आवश्यक मूर्ति बनाई ओर अपने एक मित्र के हाथों उसे अपने पिता के पास भिजवाया। उसके पिता ने यह समझ कर कि मूर्ति उसके बेटे के मित्र ने बनाईं है, उसकी उसकी मूर्ति की प्रशंसा की। वहां छिपकर बैठा उसका पुत्र सामने आया और गर्व से बोला, यह मूर्ति तो मैंने बनाईं है। "आखिरकार यह मूर्ति आपको पसंद आ ही गई और आप इसमें कोई खोट नहीं निकाल पाए । मूर्तिकार बोला बेटा मेरी एक बात का खोल के सुं लो। अहंकार व्यक्ति की उन्मति के अनुसार रास्ते बंद कर देता है। आज तक में तुम्हारी बनाईं मूर्तियों में कमियां निकलता रहा, इसलिए आज तुम इतनी अच्छी मूर्ति जननि में सफ़ल हो पाए हो । यदि मैं पहले ही कह देता कि तुमने बहुत अच्छि मूर्ति बनाई हैं तो शायद तुम अगली मूर्ति बनाने में पहले से ज्यादा ध्यान नहीं लगाते। यह सुनते ही पुत्र लज्जित हो गया। सार यह है कि क्ला के क्षेत्र में पूर्णता की स्थिति नहीं होनी। उत्तरोत्तर सुधार से ही श्रेष्ठता प्राप्त की जा सकती है।
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