बड़ा विचित्र है भारतीय नारी का प्रेम,
वह विदेशियों की तरह
चौबीसों घंटे नहीं करती
आई लव यू -आई लव यू का उदघोष
बल्कि गूँथ कर खिला देती है प्रेम
आंटे की लोइयों में,
कभी कपड़ों में
नील की तरह छिड़क देती है प्यार
कभी खाने की मेज़ पर इंतज़ार करते हुए
स्नेह के दो बूँद आँखों से निकाल कर
परोस देती है खाली कटोरियों में,
कभी बुखार में गीली पट्टियां बन कर
बिछ जाती है माथे पर जानती है वो.
कि मात्र क्षणिक उन्माद नहीं है प्रेम,
जो ज्वार की तरह चढ़े और भाँटे के तरह उतर जाये
जो पीछे छोड़ जाये रेत ही रेत, और मरी हुई मछलियाँ,
हाँ उसका प्रेम ठहरा है, फैला है. अपनों के जीवन में
गंगा जमुना के दोआब सा
जहाँ लहराती है. संस्कृति की फसलें..
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