YouTube

Tuesday, 14 June 2016

व. पु. काळे यांचे 28 विचार


व. पु. काळे यांचे 29 विचार वेळ मिळाला तर जरुर वाचा

1)मैत्रीचे धागे कोळ्यापेक्षाही बारीक असतात, पण लोखंडाच्या तारेपेक्षाही मजबूत असतात..! तुटले तर श्वासानेही तुटतील, नाहीतर वज्राघातेनेही तुटणार नाहीत..!!

------------------------------------

2)संवाद दोनच माणसांचा होतो, त्याच्यात तिसरा माणूस आला की त्या गप्पा होतात..!!

-------------------------------------

3)कोमलतेत प्रचंड सामर्थ्य असतं कोमलता म्हणजे दुर्बलता नव्हे ..! म्हणूनच खडक झिजतात प्रवाह रुंदावत जातो..!!

------------------------------------

4)जाळायला काही नसलं तर पेटलेली काडीसुद्धा आपोआप विझते..!!

------------------------------------

5)खर्च झाल्याच दु:ख नसतं, हिशोब लागला नाही की त्रास होतो..!!

------------------------------------

6)प्रॉब्लेम्स नसतात कुणाला..? ते शेवटपर्य असतात..! पण प्रत्येक प्राॅब्लेमला उत्तर हे असतंच. ते सोडवायला कधी वेळ हवा असतो, कधी पैसा तर कधी माणस..!या तिन्ही गोष्टी पलीकडचा प्राॅब्लेम अस्तित्वातच नसतो..!!

-------------------------------------

7)आठवणी या मुंग्यांच्या वारुळाप्रमाणे असतात..! वारूळ पाहून आतमध्ये किती मुंग्या असतील याचा अदमास घेता येत नाही. पण एका मुंगीने बाहेरचा रस्ता धरला की एकामागोमाग असंख्य मुंग्या बाहेर पडतात. आठवणींचही तसंच आहे..!!

------------------------------------

8)शस्त्रक्रिया होण्यापूर्वी रोगी  घाबरलेला असतो, बरा झाल्यावर शिवलेली जखम तोच कौतुकाने दाखवत सुटतो..!!

------------------------------------

9)घेणाऱ्याच्या अपेक्षेपेक्षा देणार्‍याची ऐपत नेहमीच कमी असते..!!

------------------------------------

10)माणूस अपयशाला भीत नाही.अपयशाचं खापर फोडायला काहीच मिळालं नाही तर..? याची त्याला भीती वाटते..!!

----------------------------------

11)बोलायला कुणीच नसणं यापेक्षा आपण बोललेलं समोरच्यापर्यत न पोचणं हि शोकांतिका जास्त भयाण..!!

------------------------------------

12)कुणीही कसं दिसावं यापेक्षा कसं असावं याला महत्व आहे. ते शक्य नसेल तर जास्तीत जास्त कसं नसावं याला तरी नक्कीच महत्व आहे.

-------------------------------------

13)पाण्यात राहायचे तर माश्यांशी नुसती मैत्री करून भागत नाही तर स्वत:ला मासा बनावे लागते.

-----------------------------------

14)वादळं जेव्हा येतात तेव्हा आपण आपल्या मातीला घट्ट रुजुन रहायचं असतं. ती जितक्या वेगाने येतात तितक्याच वेगाने निघून जातात. वादळ महत्वाचे नसते प्रश्न असतो आपण त्याच्याशी कशी झुंज देतो आणि त्यातून कितपत बऱ्या अवस्थेत बाहेर येतो याचा.

-----------------------------------

15)कबुतराला गरुडाचे पंख लावता येतीलही, पण गगन भरारीचं वेड रक्तातच असावं लागतं, कारण आकाशाची ओढ दत्तक घेता येत नाही .

------------------'-----------------

16)आकाशात जेव्हा एखादा कृत्रीम ग्रह सोडतात तेव्हा गुरुत्वाकर्षणाच्या सीमेबाहेर त्याला पिटाळुन लावेपर्यतच सगळा संघर्ष असतो. त्याने एकदा स्वतः गती घेतली की उरलेला प्रवास आपोआप होतो.

-------------------------------------

17)समाजात विशिष्ट उंची गाठेपर्यत जबर संघर्ष असतो. पण एकदा अपेक्षित उंचीवर पोचलात की आयुष्यातल्या अनेक समस्या ती उंचीच सोडवते.

-------------------------------------

18)संध्याकाळच्या संधीप्रकाशातही जो टवटवीत राहीला त्याने दिवस जिंकला.

-------------------------------------

19)'अंत' आणि 'एकांत' ह्यापैकी माणूस एकांतालाच जास्त घाबरतो.

-------------------------------------

20) वाहतो तो झरा आणि थांबते ते डबकं! डबक्यावर डास येतात आणि झऱ्यावर राजहंस!

-------------------------------------

21)खऱ्या विद्यार्थ्याला कधीच सुट्टी नसते.सुट्टी ही त्याच्यासाठी नवं काहीतरी शिकण्याची संधी असते.

-------------------------------------

22)सुरुवात कशी झाली यावरच बऱ्याच घटनांचा शेवट अवलंबून असतो.

-----------------------------------

23)चुकतो तो माणूस आणि चुका सुधारतो भला माणूस!

-----------------------------------

24)तुम्ही आयुष्यात किती माणसे जोडली यावरुन तुमची श्रीमंती कळते.

-----------------------------------

25)औदार्य म्हणजे तुमच्या क्षमतेपेक्षा अधिक देणं आणि आत्मसन्मान म्हणजे तुमच्या गरजेपेक्षा कमी घेणं.

-------------------------------------

26)गंजण्यापेक्षा झिजणे केव्हाही चांगले

------------------------------------

27)अत्यंत महागडी, न परवडणारी खर्‍या अर्थाने ज्याची हानी भरुन येत नाही अशी गोष्ट किती उरली आहे ह्याचा हिशोब नसताना आपण जी वारेमाप उधळतो ती म्हणजे "आयुष्य".

-----------------------------------

28)भूक आहे तेवढे खाणे ही प्रकृती,भूक आहे त्यापेक्षा जास्त खाणे ही विकृती.
-----------------------------------


Monday, 13 June 2016

ह्रदय में बसो

एक दिन रुक्मणी ने भोजन के बाद, श्री कृष्ण को दूध पीने को दिया। दूध ज्यदा गरम होने के कारण श्री कृष्ण के हृदय में लगा और उनके श्रीमुख से निकला- " हे राधे ! "

सुनते ही रुक्मणी बोली- प्रभु ! ऐसा क्या है राधा जी में, जो आपकी हर साँस पर उनका ही नाम होता है ? मैं भी तो आपसे अपार प्रेम करती हूँ... फिर भी, आप हमें नहीं पुकारते !!

श्री कृष्ण ने कहा -देवी ! आप कभी राधा से मिली हैं ? और मंद मंद मुस्काने लगे...

अगले दिन रुक्मणी राधाजी से मिलने उनके महल में पहुंची । राधाजी के कक्ष के बाहर अत्यंत खूबसूरत स्त्री को देखा... और, उनके मुख पर तेज होने कारण उसने सोचा कि- ये ही राधाजी है और उनके चरण छुने लगी !

तभी वो बोली -आप कौन हैं ?

तब रुक्मणी ने अपना परिचय दिया और आने का कारण बताया...

तब वो बोली- मैं तो राधा जी की दासी हूँ। राधाजी तो सात द्वार के बाद आपको मिलेंगी !!

रुक्मणी ने सातो द्वार पार किये... और, हर द्वार पर एक से एक सुन्दर और तेजवान दासी को देख सोच रही थी क़ि- अगर उनकी दासियाँ इतनी रूपवान हैं... तो, राधारानी स्वयं कैसी होंगी ? 

सोचते हुए राधाजी के कक्ष में पहुंची... कक्ष में राधा जी को देखा- अत्यंत रूपवान तेजस्वी जिसका मुख सूर्य से भी तेज चमक रहा था। रुक्मणी सहसा ही उनके चरणों में गिर पड़ी... पर, ये क्या राधा जी के पुरे शरीर पर तो छाले पड़े हुए है !

रुक्मणी ने पूछा- देवी आपके  शरीर पे ये छाले कैसे ?

तब राधा जी ने कहा- देवी ! कल आपने कृष्णजी को जो दूध दिया... वो ज्यदा गरम था ! जिससे उनके ह्रदय पर छाले पड गए... और, उनके ह्रदय में तो सदैव मेरा ही वास होता है..!!

इसलिए कहा जाता है- बसना हो तो... 'ह्रदय' में बसो किसी के..! 'दिमाग' में तो.. लोग खुद ही बसा लेते है..!!
             


Please visit and read my articles and if possible share with atleast one needy person accordingly
http://lokgitbhajanevamkahaniya.blogspot.in/
http://taleastory.blogspot.in/
http://allinoneguidematerial.blogspot.in
Watch my videos
https://www.youtube.com/channel/UC4omGoxEhAT6KEd-8LvbZsA
Please like my FB page and invite your FB friends to like this
https://www.facebook.com/Rohini-Gilada-Mundhada-172794853166485/

सोमवती अमावस्या की कथा

दोस्तों और सखियों सोमवती अमावस्या से सम्बंधित अनेक कथाएँ प्रचलित हैं। पर जो मूल कथा हैं यहाँ उसका उल्लेख मैं यहाँ कर रही हूँ।

एक समय की बात हैं, एक गरीब ब्राम्हण  परिवार था, जिसमे पति, पत्नी के अलावा एक पुत्री भी थी। पुत्री धीरे धीरे बड़ी होने लगी, वह सुन्दर, सुशील, संस्कारवान एवं गुणवान थी, लेकिन गरीबी के कारण उसका विवाह नहीं हो पा रहा था।

एक दिन ब्रह्मण के घर एक साधू पधारे, वह कन्या के सेवाभाव से बहुत प्रसन्न हुए। कन्या को दीर्घ आयु का आशीर्वाद देते हुए साधू ने कहा की कन्या के हथेली में विवाह का योग नहीं है। 

ब्राह्मण ने साधू से उपाय पूछा कि कन्या ऐसा क्या करे की उसके हाथ में विवाह योग बन जाए। 

तब साधू ने अपनी अंतर्दृष्टि से ध्यान करके बताया कि कुछ दूरी पर एक गाँव में सोना नाम की धोबी महिला अपने पति, बेटे और बहू के साथ रहती है, वह बहुत ही संस्कारी तथा पति परायण है। यदि आपकी कन्या उसकी सेवा करे और वह इसकी शादी में अपने मांग का सिन्दूर इसे लगा दे, उसके बाद इस कन्या का विवाह हो तो इस कन्या का वैधव्य योग मिट सकता है। साधू ने बताया लेकिन वह महिला कहीं भी आती जाती नहीं है।

यह बात सुनकर ब्रम्हाणी ने अपनी बेटी से धोबिन कि सेवा करने कि बात कही। कन्या प्रतिदिन तडके उठ कर सोना धोबिन के घर जाकर, सफाई और अन्य सारे काम करके अपने घर वापस आ जाती। 

जब सोना धोबिन अपनी बहू से इसके बारे में पूछा के क्या वह यह सारे कार्य करती है तो बहू ने कहा कि माँजी मैं तो देर से उठती हूँ।तो सोना निगरानी करने करने लगी कि कौन तडके ही घर का सारा काम करके चला जाता है।

एक दिन सोना ने उस कन्या को देख लिया ,जब वह जाने लगी तो सोना धोबिन उसके पैरों पर गिर पड़ी, पूछने लगी कि आप कौन है और इस तरह छुपकर मेरे घर की चाकरी क्यों करती हैं।आप ब्राह्मण कन्या हो आपके द्वारा यह करने से मैं पाप कि भागी बन रही हूँ ।

तब कन्या ने साधू द्बारा कही पूरी बात बताई। सोना धोबिन पति परायण थी, उसमें तेज था। वह तैयार हो गई। सोना धोबिन के पति थोडे अस्वस्थ थे। उसमे अपनी बहू से अपने लौट आने तक घर पर ही रहने को कहा।
सोना धोबिन ने जैसे ही अपने मांग का सिन्दूर कन्या की मांग में लगाया, उसके पति का स्वर्गवास हो गया । उसे इस बात का पता चल गया। 

वह घर से निराजल ही चली थी, यह सोचकर की रास्ते में कहीं पीपल का पेड़ मिलेगा तो उसे भँवरी देकर और उसकी परिक्रमा करके ही जल ग्रहण करेगी। उस दिन सोमवती अमावस्या थी। ब्रह्मण के घर मिले पूए-पकवान की जगह उसने ईंट के टुकडों से ही 108 बार भँवरी देकर 108 बार पीपल के पेड़ की परिक्रमा की, और उसके बाद जल ग्रहण किया। ऐसा करते ही उसके पति के मुर्दा शरीर में कम्पन होने लगा।

इसीलिए सोमवती अमवास्या के दिन जो भी जातक धोबी, धोबन को भोजन कराता है, उनका सम्मान करता है, उन्हें दान दक्षिणा देता है, उसका दाम्पत्य जीवन लम्बा और सुखमय होता है। उसके सभी मनोरथ अवश्य ही पूर्ण होते है ।

दोस्तों शास्त्रों के अनुसार पीपल के पेड़ में सभी देवों का वास होता है। अत:, सोमवती अमावस्या के दिन से शुरू करके जो व्यक्ति हर अमावस्या के दिन भँवरी देता है, उसके सुख और सौभग्य में वृध्दि होती है। जो हर अमावस्या को न कर सके, वह सोमवार को पड़ने वाली अमावस्या के दिन 108 वस्तुओं कि भँवरी देकर सोना धोबिन और गौरी-गणेश कि पूजा करता है, उसकी कथा कहता है उसे अखंड सौभाग्य की प्राप्ति होती है।


Please visit and read my articles and if possible share with atleast one needy person accordingly
http://lokgitbhajanevamkahaniya.blogspot.in/
http://taleastory.blogspot.in/
http://allinoneguidematerial.blogspot.in
Watch my videos
https://www.youtube.com/channel/UC4omGoxEhAT6KEd-8LvbZsA
Please like my FB page and invite your FB friends to like this
https://www.facebook.com/Rohini-Gilada-Mundhada-172794853166485/

चरण सेवन का माहात्म्य

ब्रह्मा जी श्रीभगवान से कहते हैं - ‘हे देव ! जो लोग आपके उभय चरण - कमलों के प्रसाद का लेथ पाकर अनुगृहीत हुए हैं, वे भक्तजन ही आपकी महिमा के तत्त्व को जान सकते हैं, उनके सिवा अन्य कोई भी चिरकाल तक विचार करने पर भी आपके तत्त्व को नहीं जान सकता ।’ यमराज अपने दूतों से कहते हैं - जो पुरुष श्रीकृष्ण के चरण - कमल के मधु का आस्वादन कर चुकता है वह फिर दुर्गतिप्रद माया के विषयों में कभी अनुरक्त नहीं होता । इसके विपरीत जो आदमी (सांसारिक) कर्मों से ही पाप का नाश करता है वह महामूढ़ है, उसके बंधन का नाश नहीं होता ।

जिसका यश महान पुण्यप्रद है उस मुरारि श्रीकृष्ण के चरण - कमल संसार सागर में नौकारूप हैं । जो लोग उस चरण - कमल नौका के आश्रित हैं, उनके लिए संसार सागर गौके खुर टिके हुए टिके हुए गढ़े के समान है । वे उसी नौका के सहारे परमपद को पहुंच सकते हैं । फिर उन्हें विपत्ति के धाम इस संसार में नहीं आना पड़ता ।
बारह प्रकार के गुणों से युक्त ब्राह्मण यदि भगवान पद्मनाभके चरणकमलों से विमुख हो और एक चाण्डाल जो अपने तन, मन, वचन और कर्म श्रीभगवान के अर्पण कर चुका हो, इन दोनों में ब्राह्मण की अपेक्षा चाण्डाल श्रेष्ठ है, क्योंकि वह श्रीकृष्ण - भक्त चाण्डाल अपने सारे कुल को पवित्र कर सकता है, परंतु वह बड़े मानवाला ब्राह्मण नहीं कर सकता ।

यमराज अपने दूतों से कहते हैं - जिन भगवान मुकुंद के चरणारविंदों की सर्वत्यागी परहंसगण सब प्रकार की आसक्ति छोड़कर किया करते हैं, उन चरणकमलों के मकरंद रस के आस्वादन से विमुख होकर जो असाधु लोग नरक के पथस्वरूप घर के जञ्जाल में फंसे रहते हैं, उन्हीं को यमपुरी में मेरे पास लाया करो ।

नागपत्नी श्रीभगवान से कहती हैं - हे भगवान ! जो लोग आपके चरनो की धूलि को प्राप्त हो जाते हैं वे फिर स्वर्ग, चक्रवर्ती राज्य, पाताल का राज्य, ब्रह्मा का पद और योग की सिद्धि की तो बात ही क्या है मुक्ति की भी इच्छा नहीं करते ।

भगवान श्रीकृष्ण की पटरानियां द्रौपदी से कहती हैं - हे साध्वी ! हमें पृथ्वी के साम्राज्य, इंद्र के राज्य, भौज्य - पद, सिद्धियां, ब्रह्मा के पद, मोक्ष या वैकुण्ठ की भी इच्छा नहीं है, हम तो केवल यहीं चाहती हैं कि भगवान श्रीकृष्ण की कमला  - कुच - कुंकुम की सुगंध से युक्त चरणधूलि को ही सदा अपने मस्तकों पर लगाती रहें ।  श्रीकृष्ण की चरण - रज के सामने सब तुच्छ हैं ।




Stay Happy! Stay Healthy! Stay Wealthy! Be liberated!
Please visit and read my articles and if possible share with atleast one needy person accordingly
http://lokgitbhajanevamkahaniya.blogspot.in/
http://taleastory.blogspot.in/
http://allinoneguidematerial.blogspot.in
Watch my videos
https://www.youtube.com/channel/UC4omGoxEhAT6KEd-8LvbZsA
Please like my FB page and invite your FB friends to like this
https://www.facebook.com/Rohini-Gilada-Mundhada-172794853166485/

वेदांतमत और वैष्णवमत

सगुण ब्रह्म ईश्वर हैं, वे सर्वशक्तिमान हैं, आत्मा में जो एक अप्रतिहत शक्ति सहज ही रहती है, वह ईश्वर की कला है । वहीं अप्रतिहत शक्ति जब एक से अधिक होती है तब उसे अंश कहते हैं । जिनमें संपूर्ण अप्रतिहत शक्ति होती हैं, उन्हें पूर्ण कहते हैं । जीव में साधारणत: कोई भी शक्ति अप्रतिहत नहीं है । योगबल से अप्रतिहत शक्ति संचय किया जा सकता है परंतु वह सहजता नहीं है । इसलिए श्रीकृष्ण न तो योगयुक्त मनुष्य हैं और न कला या अंश ही हैं ।

वे पूर्ण हैं, क्योंकि उनमें संपूर्ण अप्रतिहत शक्तियां हैं । सगुण ब्रह्म और निर्गुण ब्रह्म में वास्तव में कोई भेद नहीं है । इसलिए श्रीकृष्ण में कहीं कल्पित भेद से नाना जीवभाव दिखलाए गये हैं तो कहीं वास्तव भाव से अपने ब्रह्मत्व का प्रतिपादन हुआ है । सर्वशक्तिमान की यह लीला संपूर्णरूप से उपयुक्त ही है ।

श्रीकृष्ण - विग्रह नित्य है, वे पूर्ण ब्रह्म हैं । निराकार पूर्णब्रह्म आकाशकुसुमवत अलीक हैं । श्रीकृष्ण गोलोकविहारी हैं, वृदांवन में इनकी नित्य स्थिति है । मथुरापति और द्वारकापति इनके अंश हैं । जब अक्रूर जी वृंदावन से श्रीकृष्ण को ले जाने लगे तब श्रीकृष्ण ने अपने पूर्णविग्रह को वृंदावन में ही छिपा रखा और वैसी ही दूसरी आकृति बनाकर वे अंशरूप से मथुरा चले गये । यहीं अंश आगे चलकर द्वारका गये । गीता - कथन के समय अपने योगबल से अपने उसी पूर्णभाव का आश्रय करके श्रीकृष्ण ने अर्जुन को गीता का उपदेश दिया । इसी से अनुगीता कहते समय अर्जुन से उन्होंने कहा कि इस समय मैं पूर्ण भाव में स्थित न होने के कारण वैसा उपदेश नहीं कर सकता । कैशोरवय और माधुर्य - भाव पूर्णता के प्रधान लक्षण हैं ।

श्रीकृष्ण के यह अंश ही नारायण - ऋषि के अवतार हैं । श्रीकृष्ण - विग्रह अप्राकृत है, उनके अंश भी अप्राकृत की अप्राकृत विभूति हैं । जीव सब उनके दास हैं । वहीं पूर्णब्रह्म हैं, वहीं रसस्वरूप हैं । श्रुति ने इसी से उन्हें ‘रसो वै स:’ कहा है । योग, देवाराधना, युद्ध और क्रोध आदि सबी उनकी लीलाएं हैं - रसमय का रस है । उस रसमय श्रीकृष्ण के चरणों में कोटि - कोटि प्रणाम करके हम अपनी नीरस लेखनी को विश्राम देते हैं ।



Stay Happy! Stay Healthy! Stay Wealthy! Be liberated!
Please visit and read my articles and if possible share with atleast one needy person accordingly
http://lokgitbhajanevamkahaniya.blogspot.in/
http://taleastory.blogspot.in/
http://allinoneguidematerial.blogspot.in
Watch my videos
https://www.youtube.com/channel/UC4omGoxEhAT6KEd-8LvbZsA
Please like my FB page and invite your FB friends to like this
https://www.facebook.com/Rohini-Gilada-Mundhada-172794853166485/

महादेव का वरदान

गज और असुर के संयोग से एक असुर का जन्म हुआ. उसका मुख गज जैसा होने के कारण उसे गजासुर कहा जाने लगा.

गजासुर शिवजी का बड़ा भक्त था और शिवजी के बिना अपनी कल्पना ही नहीं करता था. उसकी भक्ति से भोले भंडारी गजासुर पर प्रसन्न हो गए वरदान मांगने को कहा.

गजासुर ने कहा- प्रभु आपकी आराधना में कीट-पक्षियों द्वारा होने वाले विघ्न से मुक्ति चाहिए. इसलिए मेरे शरीर से हमेशा तेज अग्नि निकलती रहे जिससे कोई पास न आए और मैं निर्विघ्न आपकी अराधना करता रहूं.

महादेव ने गजासुरो को उसका मनचाहा वरदान दे दिया. गजासुर फिर से शिवजी की साधना में लीन हो गया.

हजारो साल के घोर तप से शिवजी फिर प्रकट हुए और कहा- तुम्हारे तप से प्रसन्न होकर मैंने मनचाहा वरदान दिया था. मैं फिर से प्रसन्न हूं बोलो अब क्या मांगते हो ?

गजासुर कुछ इच्छा लेकर तो तप कर नहीं रहा था. उसे तो शिव आराधना के सिवा और कोई काम पसंद नहीं था. लेकिन प्रभु ने कहा कि वरदान मांगो तो वह सोचने लगा.

गजासुर ने कहा- वैसे तो मैंने कुछ इच्छा रख कर तप नहीं किया लेकिन आप कुछ देना चाहते हैं तो आप कैलाश छोड़कर मेरे उदर (पेट) में ही निवास करें.

भोले भंडारी गजासुर के पेट में समा गए. माता पार्वती ने उन्हें खोजना शुरू किया लेकिन वह कहीं मिले ही नहीं. उन्होंने विष्णुजी का स्मरण कर शिवजी का पता लगाने को कहा.

श्रीहरि ने कहा- बहन आप दुखी न हों. भोले भंडारी से कोई कुछ भी मांग ले, दे देते हैं. वरदान स्वरूप वह गजासुर के उदर में वास कर रहे हैं.

श्रीहरि ने एक लीला की. उन्होंने नंदी बैल को नृत्य का प्रशिक्षण दिया और फिर उसे खूब सजाने के बाद गजासुर के सामने जाकर नाचने को कहा.

श्रीहरि स्वयं एक ग्वाले के रूप में आए औऱ बांसुरी बजाने लगे. बांसुरी की धुन पर नंदी ने ऐसा सुंदर नृत्य किया कि गजासुर बहुत प्रसन्न हो गया.

उसने ग्वाला वेशधारी श्रीहरि से कहा- मैं तुम पर प्रसन्न हूं. इतने साल की साधना से मुझमें वैराग्य आ गया था. तुम दोनों ने मेरा मनोरंजन किया है. कोई वरदान मांग लो.

श्रीहरि ने कहा- आप तो परम शिवभक्त हैं. शिवजी की कृपा से ऐसी कोई चीज नहीं जो आप हमें न दे सकें. किंतु मांगते हुए संकोच होता है कि कहीं आप मना न कर दें.

श्रीहरि की तारीफ से गजासुर स्वयं को ईश्वर तुल्य ही समझने लगा था. उसने कहा- तुम मुझे साक्षात शिव समझ सकते हो. मेरे लिए संसार में कुछ भी असंभव नहीं. तुम्हें मनचाहा वरदान देने का वचन देता हूं.

श्रीहरि ने फिर कहा- आप अपने वचन से पीछे तो न हटेंगे. गजासुर ने धर्म को साक्षी रखकर हामी भरी तो श्रीहरि ने उससे शिवजी को अपने उदर से मुक्त करने का वरदान मांगा.

गजासुर वचनबद्ध था. वह समझ गया कि उसके पेट में बसे शिवजी का रहस्य जानने वाला यह रहस्य यह कोई साधारण ग्वाला नहीं हैं, जरूर स्वयं भगवान विष्णु आए हैं.

उसने शिवजी को मुक्त किया और शिवजी से एक आखिरी वरदान मांगा. उसने कहा- प्रभु आपको उदर में लेने के पीछे किसी का अहित करने की मंशा नहीं थी. मैं तो बस इतना चाहता था कि आपके साथ मुझे भी स्मरण किया जाए. शरीर से आपका त्याग करने के बाद जीवन का कोई मोल नहीं रहा. इसलिए प्रभु मुझे वरदान दीजिए कि मेरे शरीर का कोई अंश हमेशा आपके साथ पूजित हो. शिवजी ने उसे वह वरदान दे दिया.

श्रीहरि ने कहा- गजासुर तुम्हारी शिव भक्ति अद्भुत है. शिव आराधना में लगे रहो. समय आने पर तुम्हें ऐसा सम्मान मिलेगा जिसकी तुमने कल्पना भी नहीं की होगी.

जब गणेशजी का शीश धड़ से अलग हुआ तो गजासुर के शीश को ही श्रीहरि काट लाए और गणपति के धड़ से जोड़कर जीवित किया था. इस तरह वह शिवजी के प्रिय पुत्र के रूप में प्रथम आराध्य हो गया.


Please visit and read my articles and if possible share with atleast one needy person accordingly
http://lokgitbhajanevamkahaniya.blogspot.in/
http://taleastory.blogspot.in/
http://allinoneguidematerial.blogspot.in
Watch my videos
https://www.youtube.com/channel/UC4omGoxEhAT6KEd-8LvbZsA
Please like my FB page and invite your FB friends to like this
https://www.facebook.com/Rohini-Gilada-Mundhada-172794853166485/

गुप्त नवरात्र

प्रत्यक्ष फल देते हैं गुप्त नवरात्र

गुप्त नवरात्र में दशमहाविद्याओं की साधना कर ऋषि विश्वामित्र अद्भुत शक्तियों के स्वामी बन गए। उनकी सिद्धियों की प्रबलता का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने एक नई सृष्टि की रचना तक कर डाली थी। 

इसी तरह, लंकापति रावण के पुत्र मेघनाद ने अतुलनीय शक्तियां प्राप्त करने के लिए गुप्त नवरात्रों में साधना की थी शुक्राचार्य ने मेघनाद को परामर्श दिया था कि गुप्त नवरात्रों में अपनी कुलदेवी निकुम्बाला की साधना करके वह अजेय बनाने वाली शक्तियों का स्वामी बन सकता है। 

गुप्त नवरात्रमें दस महाविद्याओं की साधना की जाती है। गुप्त नवरात्रों से एक प्राचीन कथा जुड़ी हुई है। 

एक समय ऋषि श्रृंगी भक्त जनों को दर्शन दे रहे थे अचानक भीड़ से एक स्त्री निकल कर आई, और करबद्ध होकर ऋषि श्रृंगी से बोली कि मेरे पति दुर्व्यसनों से सदा घिरे रहते हैं, जिस कारण मैं कोई पूजा-पाठ नहीं कर पाती धर्म और भक्ति से जुड़े पवित्र कार्यों का संपादन भी नहीं कर पाती। यहां तक कि ऋषियों को उनके हिस्से का अन्न भी समर्पित नहीं कर पाती मेरा पति मांसाहारी हैं, जुआरी है, लेकिन मैं मां दुर्गा कि सेवा करना चाहती हूं, उनकी भक्ति साधना से जीवन को पति सहित सफल बनाना चाहती हूं। 

ऋषि श्रृंगी महिला के भक्तिभाव से बहुत प्रभावित हुए। ऋषि ने उस स्त्री को आदरपूर्वक उपाय बताते हुए कहा कि वासंतिक और शारदीय नवरात्रों से तो आम जनमानस परिचित है लेकिन इसके अतिरिक्त दो नवरात्र और भी होते हैं, जिन्हें गुप्त नवरात्र कहा जाता है प्रकट नवरात्रों में नौ देवियों की उपासना हाती है और गुप्त नवरात्रों में दस महाविद्याओं की साधना की जाती है।

इन नवरात्रों की प्रमुख देवी स्वरुप का नाम सर्वैश्वर्यकारिणी देवी है यदि इन गुप्त नवरात्रों में कोई भी भक्त माता दुर्गा की पूजा साधना करता है तो मां उसके जीवन को सफल कर देती हैं लोभी, कामी, व्यसनी, मांसाहारी अथवा पूजा पाठ न कर सकने वाला भी यदि गुप्त नवरात्रों में माता की पूजा करता है तो उसे जीवन में कुछ और करने की आवश्यकता ही नहीं रहती। 

उस स्त्री ने ऋषि श्रृंगी के वचनों पर पूर्ण श्रद्धा करते हुए गुप्त नवरात्र की पूजा की मां प्रसन्न हुई और उसके जीवन में परिवर्तन आने लगा, घर में सुख शांति आ गई। पति सन्मार्ग पर आ गया, और जीवन माता की कृपा से खिल उठा। 

यदि आप भी एक या कई तरह के दुर्व्यसनों से ग्रस्त हैं और आपकी इच्छा है कि माता की कृपा से जीवन में सुख समृद्धि आए तो गुप्त नवरात्र की साधना अवश्य करें। तंत्र और शाक्त मतावलंबी साधना के दृष्टि से गुप्त नवरात्रों के कालखंड को बहुत सिद्धिदायी मानते हैं। 

मां वैष्णो देवी, पराम्बा देवी और कामाख्या देवी का अहम् पर्व माना जाता है पाकिस्तान स्थित हिंगलाज देवी की सिद्धि के लिए भी इस समय को महत्त्वपूर्ण माना जाता है। 

शास्त्रों के अनुसार दस महाविद्याओं को सिद्ध करने के लिए ऋषि विश्वामित्र और ऋषि वशिष्ठ ने बहुत प्रयास किए लेकिन उनके हाथ सिद्धि नहीं लगी वृहद काल गणना और ध्यान की स्थिति में उन्हें यह ज्ञान हुआ कि केवल गुप्त नवरात्रों में शक्ति के इन स्वरूपों को सिद्ध किया जा सकता है। गुप्त नवरात्रों में दशमहाविद्याओं की साधना कर ऋषि विश्वामित्र अद्भुत शक्तियों के स्वामी बन गए उनकी सिद्धियों की प्रबलता का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने एक नई सृष्टि की रचना तक कर डाली थी। 

इसी तरह, लंकापति रावण के पुत्र मेघनाद ने अतुलनीय शक्तियां प्राप्त करने के लिए गुप्त नवरात्र में साधना की थी शुक्राचार्य ने मेघनाद को परामर्श दिया था कि गुप्त नवरात्रों में अपनी कुल देवी निकुम्बाला कि साधना करके वह अजेय बनाने वाली शक्तियों का स्वामी बन सकता है मेघनाद ने ऐसा ही किया और शक्तियां हासिल की राम, रावण युद्ध के समय केवल मेघनाद ने ही भगवान राम सहित लक्ष्मण जी को नागपाश मे बांध कर मृत्यु के द्वार तक पहुंचा दिया था। 

ऐसी मान्यता है कि यदि नास्तिक भी परिहासवश इस समय मंत्र साधना कर ले तो उसका भी फल सफलता के रूप में अवश्य ही मिलता है। यही इस गुप्त नवरात्र की महिमा है यदि आप मंत्र साधना, शक्ति साधना करना चाहते हैं और काम-काज की उलझनों के कारण साधना के नियमों का पालन नहीं कर पाते तो यह समय आपके लिए माता की कृपा ले कर आता है। 

गुप्त नवरात्रों में साधना के लिए आवश्यक न्यूनतम नियमों का पालन करते हुए मां शक्ति की मंत्र साधना कीजिए। गुप्त नवरात्र की साधना सभी मनोकामनाएं पूरी करती हैं गुप्त नवरात्र के बारे में यह कहा जाता है कि इस कालखंड में की गई साधना निश्चित ही फलवती होती है। 

हां, इस समय की जाने वाली साधना की गुप्त बनाए रखना बहुत आवश्यक है अपना मंत्र और देवी का स्वरुप गुप्त बनाए रखें गुप्त नवरात्र में शक्ति साधना का संपादन आसानी से घर में ही किया जा सकता है। इन महाविद्याओं की साधना के लिए यह सबसे अच्छा समय होता है गुप्त व चामत्कारिक शक्तियां प्राप्त करने का यह श्रेष्ठ अवसर होता है। 

धार्मिक दृष्टि से हम सभी जानते हैं कि नवरात्र देवी स्मरण से शक्ति साधना की शुभ घड़ी है। दरअसल, इस शक्ति साधना के पीछे छुपा व्यावहारिक पक्ष यह है कि नवरात्र का समय मौसम के बदलाव का होता है। आयुर्वेद के मुताबिक इस बदलाव से जहां शरीर में वात, पित्त, कफ में दोष पैदा होते हैं, वहीं बाहरी वातावरण में रोगाणु जो अनेक बीमारियों का कारण बनते हैं। सुखी-स्वस्थ जीवन के लिये इनसे बचाव बहुत जरूरी है नवरात्र के विशेष काल में देवी उपासना के माध्यम से खान-पान, रहन-सहन और देव स्मरण में अपनाये गए संयम और अनुशासन तन व मन को शक्ति और ऊर्जा देते हैं जिससे इंसान निरोगी होकर लंबी आयु और सुख प्राप्त करता है। 

धर्म ग्रंथों के अनुसार गुप्त नवरात्र में प्रमुख रूप से भगवान शंकर व देवी शक्ति की आराधना की जाती है। 
देवी दुर्गा शक्ति का साक्षात स्वरूप है दुर्गा शक्ति में दमन का भाव भी जुड़ा है। यह दमन या अंत होता है शत्रु रूपी दुर्गुण, दुर्जनता, दोष, रोग या विकारों का ये सभी जीवन में अड़चनें पैदा कर सुख-चैन छीन लेते हैं। यही कारण है कि देवी दुर्गा के कुछ खास और शक्तिशाली मंत्रों का देवी उपासना के विशेष काल में जाप शत्रु, रोग, दरिद्रता रूपी भय बाधा का नाश करने वाला माना गया है सभी’नवरात्र’ शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से लेकर नवमी तक किए जाने वाले पूजन, जाप और उपवास का प्रतीक है- ‘नव शक्ति समायुक्तां नवरात्रं तदुच्यते’। 

देवी पुराण के अनुसार एक वर्ष में चार माह नवरात्र के लिए निश्चित हैं। नवरात्र के नौ दिनों तक समूचा परिवेश श्रद्धा व भक्ति, संगीत के रंग से सराबोर हो उठता है। धार्मिक आस्था के साथ नवरात्र भक्तों को एकता, सौहार्द, भाईचारे के सूत्र में बांधकर उनमें सद्भावना पैदा करता है। 

शाक्त ग्रंथो में गुप्त नवरात्रों का बड़ा ही माहात्म्य गाया गया है मानव के समस्त रोग-दोष व कष्टों के निवारण के लिए गुप्त नवरात्र से बढ़कर कोई साधनाकाल नहीं हैं। श्री, वर्चस्व, आयु, आरोग्य और धन प्राप्ति के साथ ही शत्रु संहार के लिए गुप्त नवरात्र में अनेक प्रकार के अनुष्ठान व व्रत-उपवास के विधान शास्त्रों में मिलते हैं इन अनुष्ठानों के प्रभाव से मानव को सहज ही सुख व अक्षय ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है। 

दुर्गावरिवस्या’ नामक ग्रंथ में स्पष्ट लिखा है कि साल में दो बार आने वाले गुप्त नवरात्रों में माघ में पड़ने वाले गुप्त नवरात्र मानव को न केवल आध्यात्मिक बल ही प्रदान करते हैं, बल्कि इन दिनों में संयम-नियम व श्रद्धा के साथ माता दुर्गा की उपासना करने वाले व्यक्ति को अनेक सुख व साम्राज्य भी प्राप्त होते हैं। 

शिवसंहिता’ के अनुसार ये नवरात्र भगवान शंकर और आदिशक्ति मां पार्वती की उपासना के लिए भी श्रेष्ठ हैं। गुप्त नवरात्रों के साधनाकाल में मां शक्ति का जप, तप, ध्यान करने से जीवन में आ रही सभी बाधाएं नष्ट होने लगती हैं। 

देहि सौभाग्यमारोग्यं देहि मे परमं सुखम्।रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥

देवी भागवत के अनुसार जिस तरह वर्ष में चार बार नवरात्र आते हैं और जिस प्रकार नवरात्रि में देवी के नौ रूपों की पूजा की जाती है, ठीक उसी प्रकार गुप्त नवरात्र में दस महाविद्याओं की साधना की जाती है। गुप्त नवरात्रि विशेषकर तांत्रिक क्रियाएं, शक्ति साधना, महाकाल आदि से जुड़े लोगों के लिए विशेष महत्त्व रखती है। इस दौरान देवी भगवती के साधक बेहद कड़े नियम के साथ व्रत और साधना करते हैं इस दौरान लोग लंबी साधना कर दुर्लभ शक्तियों की प्राप्ति करने का प्रयास करते हैं। 

गुप्त नवरात्र के दौरान कई साधक महाविद्या (तंत्र साधना) के लिए मां काली, तारा देवी, त्रिपुर सुंदरी, भुवनेश्वरी, माता छिन्नमस्ता, त्रिपुर भैरवी, मां ध्रूमावती, माता बगलामुखी, मातंगी और कमला देवी की पूजा करते हैं। 

मान्यता है कि नवरात्र में महाशक्ति की पूजा कर श्रीराम ने अपनी खोई हुई शक्ति पाई। इसलिए इस समय आदिशक्ति की आराधना पर विशेष बल दिया गया है। 

संस्कृत व्याकरण के अनुसार नवरात्रि कहना त्रुटिपूर्ण हैं। नौ रात्रियों का समाहार, समूह होने के कारण से द्वन्द समास होने के कारण यह शब्द पुलिंग रूप 'नवरात्र' में ही शुद्ध है। 

पृथ्वी द्वारा सूर्य की परिक्रमा के काल में एक साल की चार संधियाँ हैं उनमें मार्च व सितंबर माह में पड़ने वाली गोल संधियों में साल के दो मुख्य नवरात्र पड़ते हैं इस समय रोगाणु आक्रमण की सर्वाधिक संभावना होती है। ऋतु संधियों में अक्सर शारीरिक बीमारियाँ बढ़ती हैं, अत: उस समय स्वस्थ रहने के लिए, शरीर को शुद्ध रखने के लिए और तनमन को निर्मल और पूर्णत: स्वस्थ रखने के लिए की जाने वाली प्रक्रिया का नाम 'नवरात्र' है ।

बोलो आंबे मात की जय। 

======================================

मिनी वाटर प्यूरीफायर 

=======================================

Please visit and read my articles and if possible share with atleast one needy person accordingly
http://lokgitbhajanevamkahaniya.blogspot.in/
http://taleastory.blogspot.in/
http://allinoneguidematerial.blogspot.in
Watch my videos
https://www.youtube.com/channel/UC4omGoxEhAT6KEd-8LvbZsA
Please like my FB page and invite your FB friends to like this
https://www.facebook.com/Rohini-Gilada-Mundhada-172794853166485/

ब्राह्मण अजामिल

भगवन्नाम समस्त पापों को भस्म कर देता है (यमदूतों का नया अनुभव) -

कन्नौज के आचारच्युत एवं जातिच्युत ब्राह्मण अजामिल ने कुलटा दासी को पत्नी बना लिया था । न्याय - अन्याय से जैसे भी धन मिले, वैसे प्राप्त करना और उस दासी को संतुष्ट करना ही उसका काम हो गया था । माता पिता की सेवा और अपनी विवाहिता साध्वी पत्नी का पालन भी कर्तव्य है, यह बात उसे सर्वथा भूल चुकू था। उनकी तो उसने खोज - खबर ही नहीं ली । न रहा आचार, न रहा संयम, न रहा धर्म । खाद्य - अखाद्य का विचार गया और करणीय - अकरणीय का ध्यान भी जाता रहा । अजामिल ब्राह्मण नहीं रहा, म्लेच्छप्राय हो गया । पापरच पामर जीवन हो गया उसका और महीने दो महीने नहीं पूरा  जीवन ही उसकी ऐसे ही पापों में बीता ।

उस कुलटा दासी से अजामिल के कई संतानें हुईं । पहले का किया पुण्य सहायक हुआ, किसी सत्पुरुष का उपदेश काम कर गया । अपने सबसे छोटे पुत्र का नाम अजामिल ने ‘नारायण’ रखा । बुढ़ापे की अंतिम संतान पर पिता का अपार मोह होता है । अजामिल के प्राण जैसे उस छोटे बालक में ही बसते थे । वह उसी के प्यार दुलार में लगा रहता था । बालक कुछ देर को भी दूर हो जाएं तो अजामिल व्याकुल होने लगता था । इसी मोहग्रस्त दशा में जीवनकाल समाप्त हो गया । मृत्यु की घड़ी आ गयी । यमराज के भयंकर दूत हाथों में पाश लिये आ धमके और अजामिल के सूक्ष्म शरीर को उन्होंने बांध लिया । उन विकराल दूतों को देखते ही भय से व्याकुलअजामिल ने पास खेलते अपने पुत्र को कातर स्वर में पुकारा - ‘नारायण ! नारायण !’

‘नारायण !’ एक मरणासन्न प्राणी की कातर पुकार सुनी सदा सर्वत्र अप्रमत्त, अपने स्वामी के जनों की रक्षा में तत्पर रहनेवाले भगवत्पार्षदों ने और वे दौड़ पड़े । यमदूतों का पाश उन्होंने छिन्न - भिन्न कर दिया ।  बलपूर्वक दूर हटा दिया यमदूतों को अजामिल के पास से । 

बेचारे यमदूत हक्के - बक्के देखते रह गये । उनका ऐसा अपमान कहीं नहीं हुआ था । उन्होंने इतने तेजस्वी देवता भी नहीं देखे थ । सब - के - सब इंदीवर सुंदर, कमललोचन, रत्नाभरणभूषित, चतुर्भुज, शंख - चक्र - गदा - पद्म लिये, अमित तेजस्वी इन अद्भुत देवताओं से यमदूतों का कुछ वश भी नहीं चल सकता था । साहस करके वे भगवत्पार्षदों से बोले - ‘आप लोग कौन हैं ? हम तो धर्मराज के सेवक हैं । उनकी आज्ञा से पापी को उनके समक्ष ले जाते हैं । जीव के पाप - पुण्य के फल का निर्णय तो हमारे स्वामी संयमनीनाथ ही करते हैं । आप हमें अपने कर्तव्यपालन से क्यों रोकते हैं ?’

भगवत्पार्षदों ने तनिक फटकार दिया - ‘तुम धर्मराज के सेवक सही हो, किंतु तुम्हें धर्म का ज्ञान ही नहीं है । जानकर या अनजान में ही जिसने ‘भगवान नारायण’ का नाम ले लिया, वह पापी रहा कहां ? संकेत से, हंसी में, छल से, गिरने पर या और किसी भी बहाने लिया गया भगवन्नाम जीव के जन्म - जन्मांतर के पापों को वैसे ही भस्म कर देता है, जैसे अग्नि की छोटी चिनगारी सूखी लकड़ियों की महान ढेरी को भस्म कर देती है । इस पुरुष ने पुत्र के बहाने सही, नाम तो नारायण प्रभु का लिया है, फिर इसके पाप रहे कहां ? तुम एक निष्पाप को कष्ट देने की घृष्टता मत करो ।’

यमदूत क्या करते, वे अजामिल को छोड़कर यमलोक आ गये और अपने स्वामी के सम्मुख हाथ जोड़कर खड़े हो गये । उन्होंने धर्मराज से ही पूछा - ‘स्वामिन ! क्या विश्व का आपके अतिरिक्त भी कोई शासक है ? हम एक पापी के लेने गये थे । उसने अपने पुत्र नारायण को पुकारा, किंतु उसके ‘नारायण’ कहते ही वहां कई तेजोमय सिद्ध पुरुष आ धमके । इन सिद्धों ने आपके पाश तोड़ डाले और हमारी बड़ी दुर्गति की । वे अंतत: हैं कौन, जो निर्भय आपकी भी अवज्ञा करते हैं ?’

दूतों की बात सुनकर यमराज ने हाथ जोड़कर किसी अलक्ष्य को मस्तक झुकाया । वे बोले - ‘दयामय भगवान नारायण मेरा अपराध क्षमा करें । मेरे अज्ञानी दूतों ने उनके जनकी अवहेलना की है ।’ इसके पश्चात वे दूतों से बोले - ‘सेवकों, समस्त जगत के जो आदिकारण हैं, सृष्टि स्थिति संहार जिनके भ्रूभंगमात्र से होता है, वे भगवान नारायण भगवान के नित्य सावधान पार्षद सदा सर्वत्र उनके जनों की रक्षा के लिये घूमते रहते हैं । मुझसे और दूसरे समस्त संकटों से वे प्रभु के जनों की रक्षा करते हैं ।’

यमराज ने बताया - ‘तुमलोग केवल उसी पापी जीव को लेने जाया करो, जिसकी जीभ से कभी किसी प्रकार भगवन्नाम न निकला हो, जिसने कभी भगवत्कथा न सुनी हो, जिसके पैर कभी भगवान के पावन लीलास्थलों में न गये हों अथवा जिसके हाथों ने कभी भगवान के श्रीविग्रह की पूजा न की हो । यमदूतों ने अपने स्वामी की यह आज्ञा उसी दिन भलीभांति रटकर स्मरण कर ली, क्योंकि इसमें प्रमाद होने का परिणाम वे भोग चुके थे ।’

यमदूतों के अदृश्य होते ही अजामिल की चेतना सजग हुई, किंतु वह कुछ पूछे या बोले, इससे पूर्म ही भगवत्पार्षद अदृष्य हो जाएं, किंतु अजामिल उनका दर्शन कर चुका था । यदि एक क्षण के कुसंग ने उसे पाप के गड्ढे में ढकेल दिया था तो एक क्षण के सत्संग ने उसे उठाकर ऊपर खड़ा कर दिया । उसका हृदय बदल चुका था । आसक्ति नष्ट हो चुकी थी । अपने अपकर्मों के लिए घोर पश्चात्ताप उसके हृदय में जाग्रत हो गया ।

तनिक सावधान होते ही अजामिल उठा । अब जैसे इस परिवार और इस संसार से उसका कोई संबंध ही न था । बिना किसी से कुछ कहे वह घर से निकला और चल पड़ा । धीरे - धीरे वह हरिद्वार पहुंच गया । वहां भगवती पतितपावनी भागीरथी में नित्य स्नान और उऩके तटपर ही आसन लगाकर भगवान का सतत भजन - यहीं उसका जीवन बन गया । आयु को तो समाप्त होना ही ठहरा, किंतु जब अजामिल की आयु समाप्त हुई, वह मरा नहीं । वह तो देह त्यागकर मृत्यु के चंगुल से सदा को छूट गया । भगवान के वे ही पार्षद विमान लेकर पधारे और उस विमान में बैठकर अजामिल भगवद्धाम चला गया ।

जय श्री कृष्ण


Please visit and read my articles and if possible share with atleast one needy person accordingly
http://lokgitbhajanevamkahaniya.blogspot.in/
http://taleastory.blogspot.in/
http://allinoneguidematerial.blogspot.in
Watch my videos
https://www.youtube.com/channel/UC4omGoxEhAT6KEd-8LvbZsA
Please like my FB page and invite your FB friends to like this
https://www.facebook.com/Rohini-Gilada-Mundhada-172794853166485/

Strategic Alliances

  Strategic Alliances -  For any achievement gone need the right person on your team.  Sugriv was very keen on this. Very first Sugriva was ...