सज्जन की संगति से हमे अच्छाई ही प्राप्त होती है। हम खोते कुछ नही।
तरुवर सज्जन सदृश सदा,
फुले फ़लै पर हेत।
इतते वे पाहन हने,
उत्ते वे फल देत।।
फुले फ़लै पर हेत।
इतते वे पाहन हने,
उत्ते वे फल देत।।
शेरे पंजाब महाराजा रंजीत सिंह बहुत शूरवीर भी, दानवीर भी और ज्ञानवीर भी था।एक बार वह अपनी प्रजा का हाल चाल जानने के लिये निकला।वह अपने बगीचे में से गुजर रहा था कि एक पत्थर आकर उसके शरीर से लगा, जिससे कि थोडा खून भी निकल आया।
दरबारिओ ने भाग दौड़ कर उस पत्थर फेंकने वाले को ढूंढा तो देखा कि एक किशोर समीप ही एक पेड़ के नीचे खड़ा है और पत्थर फ़ेंक रहा है।
वे उसे पकड़ कर महाराजा के पास ले आये और बहुत क्रुद्ध होकर कहा की इसको कड़ा से कड़ा दंड मिलना चाहिये। महाराजा ने उन्हें रोका। उनको सज्जनता के ये बोल याद हो आये--
इतते वे पाहन हने, उत्तते वे फल देत।
अरे यह बालक भूखा है। अपने पेट की भूख मिटाने के लिये आम के फल तोड़ता है।मुझे चोट पहुँचाने के लिये इसने पत्थर नही फेंका।मै इसे दंड कैसे दूँ।
देखो इस निर्जीव पेड़ को देखो, जब इसपर कोई पत्थर फेंकता है तो यह बदले में अपना पका पकाया स्वादिष्ट फल देता है। लाओ हम भी इस बच्चे को इनाम देंगे।हम मनुष्य हैं। जब यह पेड़ पत्थर फेंकने वाले को मीठा फल देता है तो हम भी इनाम देंगे। और सचमुच उस सज्जन राजा ने उस किशोर को अच्छा खासा इनाम दिया। सज्जनता की, याने पांडित्य की यही तो परख होती है।
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