कार्तवीर्यका वध कर कृतार्थ हुए भगवान परशुरामजी कैलासपर गए । वहां उनकी भेंट सभी गणोंसे तथा गणाधीश गणपतिसे भी हुई । शंकरजीके दर्शनकी इच्छा श्रीपरशुरामके मनमें थी; परंतु उस समय शिव-पार्वतीजी विश्राम कर रहे थे । श्रीपरशुराम श्रीगणेशजीसे बोले, ‘‘ मैं परमेश्वरको नमस्कार करने हेतु अंतःपुरमें जा रहा हूं, प्रणाम कर मैं शीघ्र वापस आ जाऊंगा । जिसकी कृपासे मैं ने कार्तवीर्यको मारा, इक्कीस बार पृथ्वी निःक्षत्रिय की, उस जगद्गुरुसे जितना शीघ्र हो सके, मुझे भेंट करनी ही चाहिए ।’’ यह सुनकर गणेशजी बोले, ‘‘आप थोडी देर रुक जाइए ।’’
परंतु गणेशजीका कहना न मानकर हाथमें परशु लिए परशुरामजी निर्भयतासे भीतर जाने लगे, तब गणेशजीने उठकर उन्हें रोका । प्रेम तथा नम्रतासे एक ओर किया ।क्रोधसे उन्हें मारने हेतु परशुरामजीने परशु उठाया । धर्मको साक्षि रखकर गणेशजीने पुनः परशुरामजीको भीतर न जानेके लिए कहा । फिर भी परशुरामजी न माने । अतः अपनी सूंड कोटि योजन बढाकर उसमें परशुरामजीको फंसाकर गणेशजीने सारे सप्त लोकोंमें घुमाया । उस भ्रमणसे सुध-बुध खाए परशुरामजी जब सावध हुए तब उन्होंने गुरु दत्तने दिया स्तोत्रकवच पढकर गणेशजीपर अपना परशु फेंका । उसे व्यर्थ करने हेतु गणेशजीने अपना बायां दांत आगे किया । परशुका वार व्यर्थ गया; परंतु गणेशजीका दांत टूट गया ।
सभी ओर हंगामा मच गया । सभी एकत्रित हो गए । शंकर-पार्वतीजी भी बाहर आ गए । पूरी घटना समझनेपर पार्वतीजीने परशुरामजीसे कहा, ‘‘अरे राम, तुम्हारा जन्म ब्राह्मणवंशमें हुआ है, तुम पंडित हो । जमदग्नीका पुत्र होकर तुम योगीराजजीके शिष्य हो । तुम्हारी माता, मामाजी, नानाजी सारे ही श्रेष्ठ हैं, फिर तुमने कौनसे दोषके कारण ऐसा वर्तन किया ? अमोघ जैसा परशु लेकर कोई भी सिंहको मार सकता है, तुमने ऐसा परशु गणेशपर चलाया ! तुम जैसे कोटि कोटि रामोंको मारनेके लिए यह गणेश समर्थ है । अरे, यह गणेश कृष्णांश हैं । बडे व्रतके प्रभावसे इसका जन्म हुआ है ।’’
श्रीविष्णुजीने कहा, ‘‘हे देवी पार्वती, हमारी सुनें । आपके लिए जैसे गजानन एवं कार्तिकेय हैं, वैसे ही यह परशुराम भी हैं । इनके स्नेह एवं प्रेममें कुछ भेद नहीं है । आजसे आपके इस पुत्रका नाम एकदंत हो गया है । इनके कुल आठ नाम हैं – गणेश, एकदंत, हेरंब, विघ्ननायक, लंबोदर, शूर्पकर्ण, गजवक्र, गुहाग्रज ।’’ श्रीविष्णुजीने गणेशस्तोत्र कथन किया और कहा, ‘‘हे दुर्गे, इस परशुरामपर गुस्सा न करें । इस घटनासे ही गणेशजीको एकदंत नाम प्राप्त हुआ । आप पुत्रवत परशुरामको अभय दें ।’’ तबसे श्रीगणेश एकदंत हो गए ।
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